Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Author(s): Haribhai Songadh, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६/१६
(सभी बालक मुनिराज के पास जाकर नमस्कार करते हैं और स्तुति बोलते हैं :-)
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धन्य मुनीश्वर आतम हित में छोड़ दिया परिवार। कि तुमने छोड़ा सब घरबार ।।
धन छोड़ा वैभव छोड़ा समझा जगत असार, कि तुमने छोड़ा सब संसार ॥ टेक ॥
होय दिगम्बर वन में विचरते, निश्चल होय ध्यान जब धरते। निज पद के आनंद में झूलते, उपशम रस की धार बरसते, आत्म-स्वरूप में झूलते, करते निज आतम उद्धार । कि तुमने छोड़ा सब संसार ।।
निकलंक : भाई ! चलो, हम गांव में जाकर मुनिराज के समाचार जल्दी-जल्दी सबको पहुँचाते हैं।
अकलंक : हाँ, चलो। सब एक साथ बोलिए- वीतरागी मुनिराजों की जय ! दिगम्बर सन्तों की जय !!
जगत में जीव का वही सच्चा मित्र है तथा वही सच्चा बन्धु है, जो उसे धर्म-सवन में सहायक हो । धर्म - सेवन में जो विघ्न करता है, वह तो शत्रु है।
अहो! मुनिराज भव्यजीवों को धर्मोपदेश रूपी हाथों से सहारा देकर पाप के भयंकर समुद्र से पार कराते हैं और मोक्ष के मार्ग में लगाते हैं, वे ही जीव के सच्चे बन्धु हैं।
और क्या कहें ? थोड़े में इतना समझ लेना कि जगत में जो कुछ बुरा है, दुःख है, दरिद्रता है, निन्दा, अपमान, रोग, आधिव्याधि हैं, वे सब पाप से ही उत्पन्न होते हैं।
इसलिए हे बुद्धिमान ! अगर तू इन दुःखों से बचना चाहता है और स्वर्ग- मोक्ष के सुख को चाहता है तो बुद्धिपूर्वक हिंसादि पापों को छोड़... और सम्यक्त्व सहित उत्तम क्षमादि धर्मों का सेवन कर । सकलकीर्ति श्रावकाचार