Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Author(s): Haribhai Songadh, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 29
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२७ चौथा दृश्य : (एकान्त मत के विद्यापीठ का दृश्य है। घंटी बजते ही आठदस बालक पुस्तक लेकर आते हैं। थोड़ी देर में उनके गुरु भी आ जाते हैं। बालक खड़े होकर विनय करते हैं। सारे बालक एक साथ बोलते हैं।) देवं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। (तीन बार बोलते हैं ।) गुरु : हे शिष्यो ! अपना धर्म श्रेष्ठ है। उसकी उपासना से जीव मोक्ष प्राप्त करता है। इस जगत में सब अनित्य है। सभी वस्तुयें सर्वथा अनित्य होने पर भी कितने ही लोग भ्रम से वस्तु को नित्य मानते हैं, परन्तु अपना धर्म एकान्त क्षणिकवादी है । सब ही क्षणिक है— ऐसा समझकर उससे विरक्त होना, यही अपने धर्म का उपदेश है। (अकलंक-निकलंक शिष्यों के वेश में आते हैं। आकर गुरु को नमस्कार करते हैं।) गुरु : आओ बालाको ! कहाँ से आए हो? अकलंक : महाराज ! हम सौराष्ट्र देश से आ रहे हैं। गुरु : बालको! इतनी दूर से यहाँ किसलिए आए हो ? निकलंक : स्वामीजी ! हमने इस विद्यापीठ की बहुत प्रशंसा सुनी है, इसलिए इस विद्यालय में रहकर आपके पास आपके धर्म का अभ्यास करने आये हैं। अतः आप हमें अपने इस विद्यालय में प्रवेश दीजिए और आपके धर्म का अभ्यास कराइये। गुरु : बालको! तुम जिनधर्मी तो नहीं हो ना ? क्योंकि जैनों को हम इस विद्यालय में पढ़ाते नहीं हैं। अकलंक : नहीं, महाराज! हम तो आपके धर्म का अभ्यास करने आये हैं।

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