Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Author(s): Haribhai Songadh, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 49
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४७ उतारेगा। भाई ! तूने अपने प्राणों का बलिदान देकर भी मुझे बचाया है तो अब मैं जैनधर्म की प्रभावना का हमारा कार्य जरूर पूरा करूंगा। जिसने तेरे प्राणों का बलिदान लिया है, उस एकांत धर्म को हराकर सम्पूर्ण भारत के गांव-गांव में, घर-घर में जैनधर्म का ध्वज फहराऊँगा। जब मैं सम्पर्ण भारत के, गांव-गांव में, घर-घर में जैनधर्म का ध्वज फहरता हुआ देख लूँगा, तब ही मेरी आत्मा को शान्ति होगी । अरे! मेरे कारण इस राहगीर (धोबी के शव की ओर देखते हुए) का मरण व्यर्थ ही हो गया। भगवान इसकी आत्मा को शांति दें। ( अकलंक के इन उद्गारों का प्रेक्षक सभा ने तालियों की गड़गडाहट से अनुमोदन किया। साथ-साथ बलिदान के दृश्य से अनेक दर्शकों की आंखों में करुण रस की धारा बंध गई है । पर्दा धीरे-धीरे बन्द होता है और इसप्रकार अकलंक निकलंक नाटक का 'बलिदान' नामक प्रथम अंक पूरा हुआ।) जिनधर्म में गुरु तो वे ही हैं, जिनका वेष श्री जिन के समान है; ऐसे रत्नत्रयवन्त गुरु को पहचान कर उनकी सेवा करो । शरीर भले मैला हो, परन्तु उनका चित्त सदा मोह रहित निर्मल होता है। मोक्ष सुख के अलावा कहीं भी उनका चित्त आसक्त नहीं होता। उनके श्रीमुख से हमेशा वीतरागता का उपदेश रूपी परम अमृत झरता है - ऐसे श्रेष्ठ गुरु की तू सेवा कर और पाप पोषक कुगुरुओं का सेवन दूर से ही छोड़ । जो स्वयं अज्ञान और दुराचार से भवसमुद्र में डूब रहे हों, वे दूसरों को किस प्रकार तारेंगे ? साँप, शत्रु और चोर वगैरह का समागम अच्छा है; परन्तु मिथ्यात्व मार्ग में लगे हुए कुगुरुओं का समागम अत्यन्त बुरा है, क्योंकि साँप, शत्रु वगैरह के सम्बन्ध से तो एक भव का ही दुःख होता है, परन्तु कुगुरुओं के संग से तो जीव अनन्त भव में दु:खी होता है। सकलकीर्ति श्रावकाचार -

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