Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Author(s): Haribhai Songadh, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 43
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४१ दिन-रात मेरे स्वामी! मैं भावना यह भाऊँ। देहान्त के समय में, तुमको न भूल जाऊँटेक।। शत्रु अगर कोई हों, संतुष्ट उनको कर दूं। समता का भाव धरके, सबसे क्षमा कराऊँ॥१॥ त्याएँ आहार-पानी, औषधि विचार अवसर। टूटे नियम न कोई, दृढ़ता हृदय में धारूँ॥२॥ जागे नहीं कषायें, नहिं वेदना सताये। तुमसे ही लौं लगी हो, दुर्ध्यान को हटाऊँ॥३॥ आतम स्वरूप चिंतन, आराधना विचारूँ। अरहंत सिद्ध साधु, रटना यही लगाऊँ॥४॥ धर्मात्मा निकट हों, चर्चा धर्म सुनावें। वे सावधान रक्खें, गाफिल न होने पाऊँ॥५॥ जीने की हो न वांछा, मरने की हो न इच्छा। परिवार मित्र जन से, मैं मोह को भगाऊँ॥६॥ भोगे जो भोग पहले, उनका न होवे सुमिरन। मैं राज्य सम्पदा या, पद इन्द्र का न चाहँ॥७॥ सम्यक्त्व का हो पालन, हो अंत में समाधि। 'शिवराम' प्रार्थना यह, जीवन सफल बनाऊँ॥८॥ (यह गायन सुनते-सुनते पहरेदार झूमने लगते हैं और फिर गहरी निद्रा में सो जाते हैं, नसकोरा बोलता है।) निकलंक : भाई! चलो दुःख में परम शरणभूत और आनन्द निधान अपने चैतन्य स्वरूप का चिंतन करते हैं। अकलंक : हाँ चलो, उत्तम जीवन में यही वास्तव में करने योग्य है।

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