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बोले, " क्यों फेंक दिये।" स्त्री बोली, “ आज प्रवचन में आप ही बोल रहे थे, बैंगन नहीं खाना चाहिए, बैंगन खाने से बहुत पाप लगता है।" पण्डित जी थाली फेंकते हुए गुस्से में आकर बोले, "अरी पगली, उपदेश दूसरों के लिए था, अपने लिए नहीं। "
भाई, ऐसा वक्ता भी अच्छा नहीं है, जो दूसरों को उपदेश देता है, स्वयं उसका पालन नहीं करता है । सारांश यह कि उत्तम वक्ता त्यागी होता है। अगर त्यागी भी है और व्याकरण, संस्कृत, लौकिक, आध्यात्मिक विषयों का जानकार है, सबसे अच्छी बात है। ऐसा वक्ता, बड़े सौभाग्य से मिलता है। कहने का अर्थ यह है कि वक्ता की कथनी और करनी एक होनी चाहिए।
निष्कर्ष - उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि सभी प्रवचन करने वाले व्यक्ति वक्ता नहीं हो सकते हैं। धार्मिक प्रवचन करने वाले व्यक्ति के अपने कुछ विशेष गुण होते हैं, उन्हीं के आधार पर उसे वक्ता कहा तथा माना जाता है। शास्त्रों के मर्म का ज्ञाता सिद्धान्तों का आचरण करने वाला हो, इस प्रकार के वक्ता ही श्रोताओं को प्रभावित करने में समर्थ होते हैं। जो चारित्र के धनी होते हैं उन्हीं की वाणी अनुकरणीय व प्रभावोत्पादक होती प्रणम्य होती है। पं. टोडरमल जी, पं. दौलतराम जी जैसे सद्गृहस्थों की लेखनी से प्रसूत ग्रंथ इसीलिए श्रद्धेय हैं, प्रमाणिक हैं।
श्रोता का स्वरूप
श्रोता के स्वभाव को बताते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि जो अज्ञानी है, निश्चय नय को समझते ही नहीं हैं, हठी हैं उनके लिए उपदेश नहीं है
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वराः देशयन्त्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥६॥
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
आचार्य अज्ञानी जीवों को ज्ञान उत्पन्न कराने के लिए व्यवहार का उपदेश करते हैं और जो जीव केवल व्यवहार नय को ही जानता है उसको उपदेश नहीं है। आचार्य व्यवहार नय श्रद्धान का कारण बताते हैं
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीत सिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥७॥
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
जिस प्रकार सिंह को सर्वथा न जानने वाले पुरुष के लिए निश्चय से बिलाव ही सिंहरूप होता है, उसी प्रकार निश्चय के स्वरूप से अपरिचित पुरुष के लिये व्यवहार ही निश्चय को प्राप्त होता है। अब प्रश्न आएगा कि श्रोता कैसा होना चाहिए इसका उत्तर देते हुए कहते हैं
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