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इसी तरह गति और स्थिति के नियामक दो द्रव्य धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय भी जैन सिद्धांत में माने गये हैं। अन्य किसी भी दर्शन का ध्यान इस और नहीं गया । इन सभी विशेषताओं की ओर लेखक ने ध्यान दिलाते हुए ठीक लिखा है कि 'वैज्ञानिक परिभाषाओं से इस विवरण को युक्त, पूर्ण धारा बहुत मिलती है और आश्चर्य होता है हमें यह देखकर कि यंत्र सुलभ सुविधाओं के अभाव में कैसे वे मनीषी इस विषय के सत्य के इतने निकट पहुचे।'
जैन धर्म के गंभीर सिद्धांतों की और जो विश्व के वैज्ञानिक की दृष्टि अभी तक नहीं गई है उसका कारण उसके अनुयायी भी हैं । वे अपने धर्म के सिद्धांतों की प्रशंसा सुनना तो पसन्द करते हैं किंतु न तो उन्हें स्वय जानने की चेष्टा करते है और न दूसरों के सामने ही रख सकते हैं । लेखक के ही शब्दों में उन्हें तो सामान्य श्रेणी के मुग्ध सुलभ उपाख्यानों से ही अवकाश नहीं, वे कहां से सत्य व तत्त्व के अन्वेषण की ओर दृष्टि पात करें ।' अतः लेखक ने बॅनेतर मनीषियों से प्रार्थना है कि वे इस ज्ञानकुञ्ज की सौरभ से लाभ उठावें। हमें आशा है कि प्रस्तुत पुस्तिका इस कार्य में सहायक होगी।