Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 99
________________ ( 5 ) था एवं उसकी मान्यता पाश्चात्य वैज्ञानिकों की तरह केवल मात्र शारीरिक परिस्थितियों को लेकर ही सीमित न थी, बल्कि भाव विकास को मुख्याधार मानकर तदनुरूप शरीर धारण करने के सिद्धान्त को वह निश्चित कर चुका था । सूक्ष्मातिसूक्ष्म देहधारी जीव किस तरह परिस्थितियों की चपेट खा भाव परिष्कृत्यानुसार एक इंद्रिय से पंच इन्द्रिय पूर्ण शरीर को प्राप्त करता हुआ सामान्य मन शक्ति से विशेष विचार शक्ति को उपलब्ध करता है एव अन्त में मानव देह व उत्तम संस्कार जन्य उन्नत विकास वोध द्वारा वर्तमान से भूत का अनुमान कर भविष्य को स्थिर करने की योग्यता प्राप्त कर अज्ञानांधकार को भेद चेनन के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट करता है, यह उल्लेख अद्वितीय है जैन साहित्य में । देखकर कि यन्त्र सुलभ वैज्ञानिक परिभाषाओं से इस विवरण की युक्ति पूर्ण धारा मिलती है और आश्चर्य होता है हमें यह बहुत विधाओं के अभाव में कैसे वे मनीषी इस निकट पहुँच पाये । विषय के सत्य के इतने देह निर्माण के रहस्य को स्पष्ट करने के लिये जैनों ने ५ विभाग स्वीकृत किये, इनको पढ़कर हमें चकित होना पड़ता है कि जानकारी कितनी दूर तक फैली हुई थी । आज के विज्ञान के सन्मुख श्रदारिक निर्माण पद्धति भी अभी तक पूर्णतया स्पष्ट नहीं हुई है । जहां हमारे भारतीय सिद्धान्त में वेक्रिय, श्राहारक, तेजस व कार्मण पद्धतियों का विशिष्ट विवरण मिलेता है । इस विषय के अधिकांश विलुप्त साहित्य में अभी भी इन


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