Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 118
________________ निर्वेद अनुकम्पा व यथार्थ युक्तियुक्त तत्व में आस्तिक्य रक्खो। वस्तु के स्वभाव को धर्म मानों, पर भाव को नहीं । इसी राह पर चलने से तुम्हारा कल्याण होगा व तुम परतंत्रता से मुक्त हो सकोगे-यही तुम्हारी साधना है और यही ध्येय ।" मानव के लिये जन संस्कृति की यह अन्यतम सारभूत शिक्षा । है । जैन सस्कृति अकर्मण्यता को कट्टर विरोधिनी है । जैसी जिसकी शक्ति व भावना हो वह पदार्थों अथवा आत्मप्रेरणाओं। की गवेशणा करने तत्पर हो जाय - पहले पदार्थों को उन्नत करे व बाद में अपने आपको । जैन संस्कृति की उस अन्यतम शिक्षा में कहीं कोई! असामजस्य नहीं आयुकता नहीं अन्धविश्वास नहीं। हमें विश्वास है कि इस निबंध स्वरूप प्रवचन के सार को समझ उपरोक्त संस्कृति के अन्यतम गुणों को प्रगट करने के लिये महानुभाव गण अग्रसर होंगे व मानव कल्याण पथ को निष्कंटक व शङ्का रहित कर सकेंगे । नामधारी या वेषधारी जैनों से हमारा प्रयोजन नहीं शायद ये बातें उनको रुचिकर न लगें पर, भाव जैन जिनको भेष व नाम से सरोकार नहीं होता एवं जो युक्तियुक्त सत्य के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को स्वीकार नहीं करते उनके हृदय में ये दो शब्द अनुकूल स्पंदन पैदा कर सकें आवश्यक प्रेरणा दे स तो हमारे उद्देश्य के शतांश सिद्धि हो जायगी। __ इस संस्कृति के अन्तर्गत बालेखित व इस पद्धति द्वार प्राण हो सकने वाली दान धारा से अपने मानव मन्दिर को प्लावितकर समस्त अपवित्र वृत्यिों से अपने मानव परित्राण पा सके एवं अपने अनुभव व ज्ञान को उत्तरोत्तर शुद्ध व व्याप्त कर सके यही हमारी अनन्य कामना है। --सपूर्ण--

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