Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ १ ( ५० लिये, अस्तित्व के लिये इस निराबाध क्रम का प्रवाह अनिवार्य हैं और इसी प्रवाह का नाम काल है । काल के सत्य स्वरूप का यों दिग्दर्शन करा विज्ञानोपयोग के लिये उसकी परिभाषा करते हुए महावीर बोले "परम अणु ( आज के एलेक्ट्रोन, प्रोटोन या डेट्रोन का समकक्षी पर हमारी राय में इससे भी सूक्ष्म ) आकाश का एक प्रदेश अधिकृत कर स्थित है । प्रेरणा या जब वह परमाणु उस आकाश प्रदेश से निकटवर्ती संलग्न द्वितीय प्रदेश में गमन करता है, तो जितने क्षुद्र तम क्षणांश. - काल का "समय" कहते हैं" । की आवश्यकता होती है उसे "समय" जैन सिद्धांत का पारिभाषिक शब्द बन गया है। व्यावहारिक जीवन के निरंतर उपयोग में आने वाले "क्षण" में ऐसे समयों की संख्या अपरिकल्पनीय है । कुछ थोड़े से विभागों का सुन्दर क्रम हमें साहित्य में मिलता है । परिधि में भी "समय" की गणना सचमुच क्षण की क्षुद्र संख्यातीत है। आध वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में सूक्ष्म यंत्रों के आविष्कार के सहारे क्षण के लक्ष दश लक्ष तक विभाग किये जा चुके हैं एवं आशान्वित वैज्ञानिक यह मानते हैं कि "क्षण" के क्षुद्र तम अंश का कहां जा कर पता चलेगा यह कह सकना बुद्धि से परे है। इसी समय के दुरभेद्य कक्ष को भेद कर ज्यों २ मानव मेघा सूक्ष्मतम प्रदेशों में अग्रसर होती जा रही है, पदार्थों के परिवर्तन तथा उनके कारण व परिमाणों का रहस्य उसके हस्तगत होता चला आ रहा है। समय ज्ञान के कारण ही तो समस्त यंत्र विद्युतादि 6

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119