Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 70
________________ सहायक स्वतन्त्र शक्ति विद्यमान है । द्रव्य की गति अपने आप में ही तो नहीं होती वह आकाश में भी गमन करता है और आकाश स्वभावतः प्रयत्नानुपेक्षी होने के कारण किसी को स्वतः सहायता या बाधा नहीं देता अतः आकाश में इधर उधर जाने के लिये पदार्थों को ढोने वाले किसी माध्यम को स्वीकार करना जरूरी है। स्कंधविशेष के परिमाण, उसको मिलने वाली संयोगजन्य प्रेरणा व आकाश में विद्यमान सानुकूल अथवा अननुकूल परिस्थितियों के अनुरूप गति माध्यम गमन या हलन चलन में सहायक होता है। काल तत्व के सम्यग् बोध से इस “गति” के समयादि का क्रम निश्चित रूप में अनुमेय हो सकता है एवं मानव, बुद्धि प्रयोग द्वारा भिन्न २ पदार्थों की गति में इच्छानुसार परिवर्तन कर सकता है यह गति माध्यम स्वतः निष्क्रिय है अर्थात् स्वतः कोई म्वतन्त्र परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकता, पर उसका सहारा पाकर ही गमन या भ्रमण संभव है। गतियों देखा जाय तो चेतन व जड़ द्रव्यों का ही स्वाभाविक अथवा प्रेरणा जन्य परिणाम है अतः गति के मूल कारण वास्तव में ये ही दो द्रव्य हो सकते हैं, पर केवल उपादान कारण से तो कार्य की सिद्धि नहीं होती-निमित्त भी चाहिये और गति में निमित्त रूप है यह धर्म द्रव्य । पदार्थ की कारण जन्य योग्यतानुसार "धर्म" नियत स्थान गमन में सहायक होता है । "धर्म" में शक्ति है कि वह द्रव्यों को (जीव-जड़) प्रेरणा शक्ति अथवा अणु समुच्चयानुसार आकाश के भिन्न २ प्रदेशों में गति करने

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