Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta
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( ८० ) परिचायक है । इस विवेचन से मानसिक शक्तियों के विकास की शिक्षा ग्रहण कर प्रगति की जा सकती है तथा ज्ञान पथ पर और भी द्रुतगति से चला जा सकता है । भौतिक विज्ञान की उन्नति में विकास के ये साधन सहायक हो सकते हैं साथ २ इनके उपयोग से आध्यात्मिक या भाव विज्ञान के प्रसार द्वारा मानव उछृखलताओं पर प्रतिबंध लगा सकता है। ___ स्याद्वाद जैन सिद्धांत का मुख्य स्तंभ है । इस को समझने के लिये की गयी सप्तभंगी की रचना ज्ञान विकास का ही परिणाम है । वस्तु एक धर्मात्मक ही न होकर अनेक धर्मात्माक है । एक ही समय में भिन्न २ दृष्टिकोण से भिन्न २ धर्मों का अस्तित्व प्रधान अथवा गौण रूप वस्तु में से विद्यमान रहता है । एक पदार्थ किसी रूप से अथवा अपेक्षा से अस्तित्व वाची है तो दूसरी अपेक्षा से वह नहीं भी है. पदार्थ के धर्म वक्तव्य भी होते है, नहीं भी होते हैं, - इन चार धारणाओं को कहीं आपस में मिला कर तो कहीं बाद देकर सप्तभंगी की रचना हुई है । हमारे देश की संस्कृति का यह परम मंत्र आज योंही पुस्तकों की पक्तियों में ही आवृत्त पड़ा है।
व्यवहार व ज्ञान के विकास के लिये इसका किस प्रकार प्रयोग करें यह हमें विदित नहीं। इसीलिये पाश्चात्य शिक्षा प्रेमी हमें कहा करते हैं कि भारतीय तत्वज्ञान का अधिकांश प्रकृत व्यवहार के लिये अनुपयुक्त है । यह भ्रांति तभी दूर हो सकती है जब मेधावी इन ज्ञान बीजों को उपयुक्त मानसिक क्षेत्रों में बो कर उत्तम फल उपजाने का प्रयत्न करें एवं भावी संतति को इसका आस्वादन

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