Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 75
________________ ( ६१ ) वर्णन मिलता है तो हमें सचमुच एक साथ आश्चर्य व संतोष हुए बिना नहीं रहता। आज के विज्ञान की सफलता के कारण जब हम बहुत सी अन्य अविश्वसनीय सी घटनाओं को (जो हमारे साहित्य में वर्णित हैं ) सत्य मानने के लिये बाध्य हो सकते हैं तो सामान्य तर्क से ही अन्य युक्ति पूर्ण उल्लेखों को सत्य मानना स्खलित विचार धारा का परिणाम नहीं कहा जा सकता। . युद्ध में शस्त्रास्त्रों का प्रयोग करते समय जहां गति की विशेष प्रेरणाओं का हमें स्पष्टोल्लेख मिलता है वहां उनके अद्भुत परिणामों को पढ़कर आश्चर्याभिभूत होना पड़ता है कि क्या इतनी सूक्ष्म कोटि के अन्तर मर्म भेदी गति प्रयोग संभव थे ? प्रयोग साहित्य के अभाव में एवं हमारी यांत्रिक कृतियों के विनष्ट हो जाने के कारण पाश्चात्य विद्या विशारदों के शङ्कित हृदय को हम प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा निरुत्तर नहीं कर सकते किंतु इससे उन प्राचीन प्राप्तियों के गौरवमय सिद्धांत साहित्य को यों सहज में असत्य कल्पित या निराधार मानने को भी हम उतारू होना नहीं चाहते । यदि हमारे साहित्य में कोई सारभूत तत्व नहीं है तो क्यों उसे ले जाकर अनुवाद द्वारा यत् किंचित् अर्थ समझ कर युरोपीय वैज्ञानिक अपने शोध क्षेत्र को विस्तृत करने की निरंतर प्रेरणाएं लिया करते हैं ? क्यों पाश्चात्य में मरी हुई संस्कृत भाषा को व विशेष कर संस्कृत के विज्ञान साहित्य के अध्ययन को शोधकों के लिये अनिवार्य माना जाता है ?

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