Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 88
________________ ( ७४ ) भारतीय, सहस्रों वर्षों का उपेक्षा काल बिता चुका और उसे भरपूर सजा मिल चुकी । अब भी क्या उसी अनिश्चित, अस्थिर व भ्रांत पथ का अनुगमन करने की साध नहीं गयी, अब और कौनसी नारकीय यन्त्रणा बाकी रह गयो है ? । जैन ज्ञान व्यवस्था बड़ी विशिष्ट कोटि की है-मवि श्रति अवधि मनः पर्याय की वैज्ञानिक रीति से व्याख्या की जाय तो उसकी गहराई निखर उठती है । प्रमाण के प्रत्यक्ष परोक्ष मल भेद में सब कुछ पा जाता है, एवं नैमित्तिक अथवा सांयोगिक पराश्रयी ज्ञान को परोक्ष की कोटि में रखने की विधि अत्यन्त उच्च कोटि के मनन का परिणाम है। ___ अन्य दार्शनिक व्यवस्थाओं ने प्रत्यक्ष परोक्ष का विभाग करते समय कई बार भूलें की हैं, तभी तो परिणाम स्वरूप किसी परावलम्बी बोध को कमी प्रत्यक्ष कह दिया गया है ? तो दृष्टि परोक्ष को परोक्ष ज्ञान कह बैठे हैं कोई । किंतु जैन ज्ञान धारणा कभी चर्म चक्षु पर निर्भर नहीं रही, उसने तो अंतर भावों पर भेद को आश्रित किया, तभी उसकी सी ज्ञान विवेचन की निर्मलता किसी अन्य सिद्धांत में नहीं पायी जाती। · मति के इन्द्रिय अनिद्रिय के उपरांत अवग्रह इहा, अवाय व धारणा एवं इनके भी अति सूक्ष्म अवांतर भेदों का मनन करने से कितना गहरा बोध सुगम्य हो उठता है । अर्थात् मति द्वारा प्राप्त होने वाले ज्ञान के सैकड़ों भेद तो यही हो गये, यदि इनका वर्गीकरण कर व्यवहार में इनका प्रयोग किया जाय तो मानव बुद्धि कितनी प्रखर होसकती है यह अगोचर नहीं रहता।

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