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दे अर्थात् इस "धर्म" द्रव्य का जीव जड़ पर स्व २ शक्ति के अनुरूप दवाव पड़ता है, एवं उसी के अनुसार नियत से अकाश क्षेत्र में गति हो सकती है।
कहीं भी तनिक सा भी विशिष्ट संयोग पाकर पदार्थ स्वयोग क्षेत्र से विस्तृत में गति करने का प्रयत्न करता है तो, प्रथम तो गति होती ही नहीं, अनुकूल दबाव के अभाव. में गति हो भी गयी तो, पदार्थ खण्ड २ होकर बिखर जाता है, - जड़ का ऐसा स्वभाव ही है और ऐसी परिस्थिति में जीव को तद् शरीर का त्याग करना पड़ता है। अतः गति सूचक"धर्म" का दबाव प्रत्येक आकाश क्षेत्रमें पदार्थ की स्वशक्ति के अनुसार रहता है और तद्रूप गति होती है यह मानना युक्ति संगत है । गति धर्म के दबाव का ज्ञान होने से मानव अपनी इच्छानुसार पदार्थो का निर्माणकर उनको आकाश में इतः स्ततः गति युक्त कर सकता है क्योंकि सूक्ष्म व अपेक्षाकृत स्थूल परिस्दनावाले पदार्थ इस "धर्म" माध्यम की सहायता पाकर स्थान की दूरी की अवगणना कर आश्चर्याभिभूत करने वाली तेजी से आकाश के महाकक्ष को भेद गति करने लगते हैं । विद्युत सूक्ष्म ध्वनि, प्रकाश आदि की आपेक्षिक गति के संबंध में विज्ञान को जो सत्य यंत्र सुलभ हो सके हैं उनके प्रयोग को देखकर उनकी गति का अनुमान लगाया जा सकता है। और यह संभव हुआ है वास्तव में इसी गति ज्ञान के बोध से । वैज्ञानिक तनिक सा इस मूल तत्व पर और ध्यान दें तो अनेक