Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 30
________________ ( १६ ) स्वतः नाश हो सकता है, अतः द्रव्य भी विलुप्त हो जाता है । किन्तु द्रव्य नाशमान नहीं है द्रव्य अपने स्वरूप से अनिश्वर है, उसके संबंध ( सापेक्ष ) स्वरूप का अनंत वार भी नाश क्यों न हो गुण का नाश नहीं होता । द्रव्य में ये तीन धर्म सदा सर्वदा विद्यमान रहते हैं उत्पत्ति, स्थिति व व्यय । द्रव्यत्व की अविरल धारा को प्रवाहित करने के लिये अथवा प्रमाणित करने के लिये ये तीनों अनिवार्य हैं। समय के प्रवाह के साथ, पदार्थ का अस्तित्व कहता है कि "वह" भी बड़े अस्तित्व कार्य से ( क्रिया से ) प्रमाणित होता है, निश्चेष्ट रहने से नहीं। कहीं भी कभी भी, कोई पदार्थ निश्चेष्ट हुआ कि उसका विलोप हुआ-सापेक्ष संबंधों के नाश का भी यही कारण है, निश्चेष्टता अकर्मण्यता सब कुछ के नाश का मूल मंत्र है। कर्मण्यता जीवन है एवं प्रवाह के समान है, उसप्रवाह के ये तीन चक्र हैं- संयोगानुसार उत्पत्ति, संयोगानुसार वस्तु के fing ww तद स्वरूप की काल विशेष तक स्थिति एवं क्रमश: उसका व्यय किसी नवीन उत्पत्ति के लिए । B to एक ही रूप में पदार्थ स्थिर हो जाय तो प्रवाह की गति रुक जाती है। और प्रवाह के रुकते ही पदार्थका कोई महत्व या उपयोग नहीं रहता एवं वह तेंदू रूप से व्यतीत हो जाता है । यह प्रवाह जीवन के लिये नितान्त अपेक्षित वस्तु है । प्रवाह के उपरोक्त तीन प्रधान स्तम्भ है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो उत्पत्ति स्थायित्व व व्यय किसी क्षण रुकते नहीं, ये तीनों एक साथ अपना कार्य करते रहते हैं और तभी द्रव्यत्व का प्रवाह अव्याबाध गति से समय के

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