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( ३५ ) सकता है। उस देह में उसकी स्थिति का उत्कृष्ट काल उस शक्तिसंचय के अनुरूप स्थिर रहता है, उसके पूर्व, संयोगानुसार उस देह का नाश भी हो सकता है, पर किसी भी हालत में आयु शक्ति के उत्कृष्ट काल को अतिक्रम कर क्षण मात्र के लिये उस शरीर में जीव टिक नहीं सकता।
कितना युक्तिपूर्ण व प्राकृतिक नियम है यह । इसी एक साथ केवल एक भव धारण करने की योग्यता के नियम की आड़ में ही तो मानवकी समस्त सत्य, ज्ञान व मुक्ति की आकांक्षा फलीभूत हो सकने के बीजमन्त्र नर्निहित है । वासनासक्त होकर अधःपात के गभीर गह्वर में पड़ जाने पर भी पतन के प्रबल प्रवाह को जीव रोकने का अवसर पा सकता है तो इस आयु शक्तिके सिद्धांत के आसरे से ही। यदि एक साथ अनेक भवों का आयुष्य बंध सकता तो किसी भी जीव को छुटकारा पाने का मोका कभी प्रासानी से नहीं मिलता ।
भव बंधन तो एक ही मोड़ के लिये है, अपनी वर्तमान कालिमा को धौत करने का प्रयल करते ही तो, दूसरी मोड़ अधः से उर्ध्व की ओर घुमायी जा सकती है । अतः एक ही मोड तक तो जीव पराधीन है, दूसरी के अस्थित होते ही प्रत्येक बार उसे अवसर-मिलता है कि अपने आपको वह अधः पात से रोक ले,
और उत्थान की ओर अग्रसर हो। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में, पूर्वापर अनुमानादि शुभ अथवा शुद्ध भाव विवेक अन्य प्रवृत्तियों को विकसित होनेका सुअवसर नहीं मिलता, अतः इस अक से उर्ध्व की गाथा को चरितार्थ करने की संभावना,