Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 57
________________ भिन्न २ कोटि के स्थूलतर स्कंध सदृश या सूक्ष्म तर स्कंधों से आघात व्याघात पाते हैं किंतु सूक्ष्मतर स्कन्ध स्थूलतरों से बाधा नहीं पाते; घनीभूत स्कंध अघनीभूतों से विशेष चिरस्थायी होते हैं; अयुक्त या विपरीत धर्म वाले स्क'ध को संयोगवशात् ग्रहण कर किसी स्कन्ध की काया की रक्षा नहीं हो सकती-आदि सर्व सामान्य तथ्यों से भरे हुए उल्लेखों से परिपूर्ण है महावीर का उपदेश। ___ आज का पाश्चात्य विज्ञान ऐसे भारतीय साहित्य के रहते हुए मानवता के लिये बारम्बार अनेक सत्यों के सर्व प्रथम आविष्कार का एक मात्र श्रेय लेने का जो हास्यास्पद उल्लेख करते नहीं लजाता उसे मनीषी भूल नहीं सकते। उनके वर्तमान महत्त् अनुसंधानों को हम श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं किंतु यही तो विज्ञान का आदिकाल नहीं, इम पुण्य भूमि में न जाने किस पुरा काल में अनेक सत्यों का आविष्कार हो चुका था एवं इन सत्यों का व्यवहार में प्रयोग अज्ञात न था। जिस का जो महत्व है उसको अस्वीकार करना तथ्य की दृष्टि तें कितना बड़ा अपराध है यह सामान्य बुद्धि भो जानता है। । प्रयोग साहित्य के अभाव में अणु आदि विज्ञान सम्बन्धी विचारों का कोई महत्त्व नहीं यह हमारे अर्द्ध शिक्षित भले ही मान बैठे हों पर पाश्चात्य विद्वान तो इसी तरह के अधूरे विवेचनों से पूर्ण साहित्य को ही चिंतन का आधार मानते व उससे ज्ञान की शोध में अप्रसर होने की प्रेरणा लेते हैं । सत्य सम्भावनाओं के मानचित्र का विचार प्रांगण में उपस्थित होना साधारण महत्त्व

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