Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ मानव देह को छोड़ और कहीं उपस्थित नहीं होती । अपेक्षाकृत अनुकूल सयोगादि पाकर अपेक्षाकृत उन्नत ( मस्तिस्क विकास की दृष्टि से ) देहधारियों में भी सामान्य विवेक जन्य दयादि प्रवृत्तियों का उदय हो सकता है, एवं तद हेतु उनको भी उन्नति का अवसर मिलता है । पर सामान्य नियम तो यह है कि संयोग के घूर्णावृत्त से यदा कदा कहीं किसी को परित्राण भले ही मिलता हो, अन्यथा सभी तो उसके इङ्गित पर काल के सर्वव्यापी अंधकार में निरुद्देश्य असतर्क भाव से रसलोलुप एवं वासनाहत होकर न जाने कहां किधर बहे चले जारहे हैं। ___ आयुष्य कर्म की सीमितता ने ही सचमुच वह सहारा दिया कि परित्राणं पाने की सम्भावना सजग हो उठी। इस अतुल बलशाली काल की गरिमा का उल्लंघन करने की कौन कभी क्षमता रख सकता है ? कोई भी तो अपनी इहकाल जीवन परिधि से बाहर तनिक सा भी सत्य सहसा सामान्य तौर से दृष्टि प्रत्यक्ष नहीं कर पाता रही विशेष तौर की बात, तो विशेष के उपाख्यान से सामान्य का कोई लाभ नहीं, जबतक कोई स्वयं विशेष न बन जाय। अज्ञान, अबोध, मोहादि के परिणाम स्वरूप उपस्थित होने वाली बाधाओं की संख्या अगणित राशियों में, चेतन पर लदी पड़ी हैं, एवं उनसे सहसा विमुक्त होने की परिकल्पना सफल अथवा गोचर नहीं हो सकती। किंतु आयु का मान तो अन्य कर्मों की तरह विशाल नहीं, सजग सतर्क होकर क्रमशः कुछ मोड़ तक भी जीवन की प्रवृत्तियों को ज्ञानानुगामिनी बनाने से आलोक का आविर्भाव हो सकला हैं एवं संयोग के अगणित चक्रों से छुटकारा पा भावों को

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119