Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 42
________________ ( २८ ) होने वाले स्वातन्त्र्य की अभिव्यक्ति को आच्छादित करने की क्षमता किसी शक्ति में नहीं होती। किसी भी मानसिक धारणा को वह स्वयं उत्पन्न करता है, स्वयं स्थिर रखताहै एवं विचारभाव परिवर्तन के साथ स्वयं क्रमशः उसे व्यतीत होने देता है । जब तक अज्ञ भाव से मृक व निःशब्द होकर वह संयोग व परिस्थितियों के चलाये चलता है, उसकी धारणायें स्वतन्त्र, स्पष्ट या ज्ञानालोकित नहीं होती, पर वहां क्यों, कैसे, किसलिये, क्या आदि अंतरभेदी प्रश्नमालाओं द्वारा संयोग परिस्थिति के कक्ष को भेदकर उसकी भावनायें असंयत से संयत, अनुचित से उचित, स्वार्थ से निःस्वार्थ, अज्ञान से ज्ञान, असत्य से सत्य के पार्श्व-वर्ती क्षेत्र से प्रवाहित होती है, उसके स्वातन्त्र्य युग का उद्भाव होता है एवं प्रत्येक कार्य के कारण का पूर्वानुमान ! करने की क्षमता उसे दृढ़ और शक्तिमान बनाती रहती है । वर्तमान की अपरिकल्पनीय विशालता को अपनो सूक्ष्मांतर भेदी सत्य धारणाओं द्वारा आत्मघात् कर अतः भूत के पूर्वाधकारमय अनंत के प्रभाव से उन्मुक्त हो जब वह अनंत अनागत के सन्मुख दत्तचित्त हो दृष्टिपात करताहै तो, समस्त अंतर तत्वों के बोध द्वारा पुंजीभूत शक्तिमयी आलोक, राशि अव्यावाध गति से अज्ञता के सघन अन्धकार को चीर कर उसके लिये, सब कुछ को संभव प्राप्य एवं स्पष्ट कर देती है। चेतन का यह रूप इतना विशाल एवं व्यापक है कि उसे ईश्वर कहे बिना छुटकारा नहीं-महावीर ने भी अस्वीकार नहीं किया, पर वे उस चेतन को इतनी बड़ी उपलब्धि के उपरांत

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