Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 33
________________ एक चेतन की कल्पना करना कुछ समय के लिये भले ही युक्ति युक्त हो, परन्तु सत्य को आवरित करने का यह क्रम महावीर की दृष्टि में उचित नहीं लगा। पारतन्त्र्य से विमुक्त हो ज्ञान व सत्य से अपने आपको आलोकित करने वाले आत्मा सचमुच एक सदृश है, अतः एक रूप मानने में कोई बाधा नहीं-यह सापेक्ष सत्य स्वीकार करने में क्षण भर के लिये कोई बुराई नही होती, पर चेतन के एकीकरण का प्रयत्न युक्ति युक्त नहीं कहा जा सकता । सत्य को. सुव्यवस्था से घसीट कर मानों विछृङ्खलता व निरंकुशता की ओर ले जाया जाता है इस तरह । व्यक्ति ईश्वर की कल्पना कर उस पर सारा आरोप लादने की प्रचेष्टा, स्वतन्त्रता के पुजारी महावीर के लिये अमान्य थी। उन्होंने व्यापक भाव से बन्धन मुक्त (अन्य द्रव्यों के पारतन्त्र्य से शुद्ध) आत्माओं को ईश्वर मानने को गाथा को स्वीकार किया, पर कभो वेतन द्रव्य को एक में मिलाकर नष्ट करने पर उतारू न हुवे वे । इस असत्य को स्वीकार करने से प्रवाह के त्रयी मन्त्र का कोई महत्व नहीं रहता एवं इस त्रयो से भिन्न रखकर किसी पदार्थ को प्रमाणित करना नितांत भ्रमात्मक हैयह कोई भी मनीषी अमान्य नहीं कर सकता। अंतर भावनाओं में कारण विशेष वश व्यक्ति ईश्वर की कल्पना रुचिकर लगती हो तो बुरी बात नहीं, पर सत्य को सर्वथा इस आधार पर स्थापित करते ही उसका बहुत विशाल एवं पवित्र भाग निरावरित नहीं हो सकता। कभी किसी ने

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