Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 39
________________ सकते, पर जीवके इस एकत्त्व में अनेक भाव राशियों का अनेकत्त्व विद्यमान रहता है । यह अनेकत्त्व सचमुच एकत्त्व ही है, क्योंकि जीव के टुकड़े नहीं होते, चाहे संख्यातीत भिन्न भावनाऐं क्यों न निरन्तर उत्पन्न या एकत्रित होती हों-उस अविछिन्न एकत्त्व में बाधा नहीं आती। भावनायें भी कोई आकाश कुसुम की तरह काल्पनिक वस्तु नहीं हैं वरिक वास्तव में वे शक्ति रूप चेतन स्पन्दनायें हैं, जिनका परिणाम होता है, व पदार्थों पर प्रभाव भी पड़ता है। चेतन का यही विशेषत्त्व सहसा मेधावियों को भी दृष्टिगोचर नहीं होता और यदा कदा वे भूल जाया करते हैं कि इस एकत्त्व में मंख्यातीत अनेकत्त्व का समावेश क्यों कर हो सकता है । महावीर ! के अतिरिक्त किसी ने इस तरह के दार्शनिक सिद्धांत का सूत्रपात करने की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। जड़ाणु की तरह जड़ाणु के जवाब में भावाणु की यह धारणा अत्यन्त मौलिक है एवं किसी दिन जीवत्त्व के स्वरूप को व्यक्त करने के लिये इसी का सहारा लेकर मानवता को अग्रसर होना पड़ेगा। गहराई से देखा जाने पर विदित होता है कि चेतनत्व के इस अविभाज्य एकत्त्व एवं अनेकत्त्व के आकार में, साथ २ निरन्तर प्रवाहित होने वाली अनंत अपरिकल्पनीय अनंतमुखी भाव धाराओंका. अटूट सामञ्जस्य कहीं मानव बुद्धि के हस्तगत हो सकता है, तो केवल इसी महावीर की दी हुई -विचार प्रणाली का अनुगमन करने से। '' भावाणुओं की परिकल्पना या उनके स्वरूप आदि के व्याख्यान १ करने की रुचि इस समय .. नहीं होती । यह विषय लेखनी द्वारा

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