Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 28
________________ ( १४ ) होता है वह सब सापेक्ष है, अनेक वार ता ये भिन्न रूप एकदूसरे से इतने पृथक दिखायी देते हैं मानों ये एक वस्तु के स्वरूप ही न हों । उस शृङ्खला को सापेक्ष तो बनाये रख नहीं सकता, क्योंकि वह संबंध परिवर्तन के साथ बदल जाता है, उस शृङ्खला को कोई रख सकता है त निरपेक्ष स्वरूप, जो अनेक सम्बन्धों के परिवर्तन के समय भी एक रूप में विद्यमान रहता है । उदाहरण के लिये "मानव" पदार्थ को लें तो हमें यह विदित होता है कि भिन्न र समाज व देश आदि की दृष्टि से एक मानव के अनेक परिचय होते हैं - ग्राम, देश, जाति, व्यवहार आदि सम्बन्ध की अपेक्षा से कहीं का निवासी, किसी का सहोदर मित्र, पिता, माता, शासक आदि और न जाने कितने सम्बन्धों की अपेक्षा से वह क्या क्या 'हो सकता है - किंतु इतना पार्थक्य होने पर भी वह " वही मानव है वही व्यक्ति है । उस व्यक्ति विशेष का पता लगाने के लिये एक २ सम्बन्ध अपेक्षा को पृथक पृथक लिया जाय तो किसी काल में भी, व्यक्ति को खोज निकालना सम्भव नहीं हो सकता । उन सभी सम्बन्धों में एक अविरल धारा के रूप में प्रवाहित होने वाले उसके मानवत्त्व को श्रेय है कि उसके व्यक्तित्व को प्रकाशित करता है। विशेष संयोगों के नाश के साथ २ वे पृथक २ सम्बन्ध नष्ट हो सकते हैं पर व्यक्तित्व जीवित रहता है । अतः मानव के दोनों धर्म निरपेक्ष- सापेक्ष - मिलाकर ही व्यक्ति (अतः पदार्थ का) का परिचय पूर्ण एवं सत्य होता है । >> देश जितने सूक्ष्म स्वरूप का परिचय पाना हो उतने ही सूक्ष्म संबंध व अन्तरधारा की जांच करने की आवश्यकता होती है। इसी

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