Book Title: Jain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Author(s): Shubhkaransinh Bothra
Publisher: Nahta Brothers Calcutta

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Page 27
________________ ( १३ ) उपादेय बनावे । इस “तुलना", का प्रयोगकर मानव क्रमशः, विवेक के, एक के बाद एक शिखर पर आरोहण करने की शक्ति व योग्यता पाता है, एवं उसके जीवन में भद्रता का प्रसार सचमुच साथक हो उठता, है । अपेक्षाकृत बुरा या भला-कुछ बुरा या कुछ भलासंयोग प्रत्येक प्रवृत्ति के समय उपस्थित होता ही है । इतना सा ध्यान रखले मानव कि अपनी भावनाओं को समझा कर दलाव की ओर न जाकर चढ़ाव की ओर चल पड़े तो फिर कोई बाधा नहींकिसी भी रुकावट को वह अतिक्रम करने की क्षमता रख सकताहै। महावीर ने सदा वस्तु के निरपेक्ष सापेक्ष स्वरूप को उसका सच्चा स्वरूप माना एवं यह कह कि वस्तु का सापेक्ष स्वरूप भी निरपेक्ष के साथ २ समझने की चीज़ है-निरपेक्ष व सापेक्ष मिल कर ही वस्तु का सम्पूर्ण परिचय बनाता है । निरपेक्ष में जहां स्व ही वस्तु का सत्य है वहां सापेक्ष में पर के उपयोग व सम्बन्ध का दिग्दर्शन होता है। यों तो निरपेक्ष स्वरूप ही वस्तु का स्वभाव व्यक्त करता है किंतु सापेक्ष के बिना उस्के गुणों का प्रकटीकरण नहीं होता, अतः वस्तु प्रायः निष्कारण ही रह जाती है। दूसरी ओर, केवल सापेक्ष को ही हम वस्तु का सच्चा स्वरूप मानले, एवं निरपेक्ष स्वभाव की सर्वथा उपेक्षा करें तो वस्तु के अस्तित्त्व तक में सन्देह किया जा सकता है । सापेक्ष तो दूसरों के सम्बन्ध से खिलने वाले स्वरूप का नाम है, अतः सापेक्ष उस सम्बन्ध तक ही विद्यमान रहता है ( दूसरे पदार्थ न हों तो वस्तु का परिचय ही न मिल सके) मिन्न २ वस्तु की अपेक्षा से वस्तु का स्वरूप भिन्न २ रूप में भासित

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