Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Balchand Shrishrimal

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Page 8
________________ सम्पादक र प्रकाशक का निवेदन तेरह - पन्न रह-पन्थी सम्प्रदाय के सिद्धान्त, तेरह-पन्थी सम्प्रदाय की मान्यता, जैन सिद्धान्तों से और जैन मान्यता से कैसा वैपरीत्य रखती हैं, यह हमने प्रस्तुत पुस्तक में संक्षेप में बताया है । तेरह - पन्थ सम्प्रदाय की मान्यताएँ जैन मान्यताओं केही विरुद्ध नहीं हैं, किन्तु संसार के समस्त धर्मों की मान्यताओं के भी विरुद्ध हैं और आत्मा के भी विरुद्ध हैं। लगभग सभी धर्मों का यह कथन है कि आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । अर्थात् — जो अपने आत्मा के प्रतिकूल हो, जो अपने आत्मा को बुरा लगे, वैसा व्यवहार दूसरे के साथ कभी न करो । इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि तुम दूसरे के साथ भी वैसा ही व्यवहार करो, जैसा व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो ! इसके अनुसार यदि हम आग में जलते हों, पानी में डूबते हों, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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