Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Balchand Shrishrimal

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Page 6
________________ दो शब्द संसार में दुःख पाते हुए प्राणी को सुख प्राप्त करने के लिए धर्म ही प्रधान कारण है । अतः प्रत्येक प्राणी को धर्म का सेवन करना चाहिए । साध्य धर्म सब का एक होने पर भी साधन में बहुत कुछ विचित्रता दिखाई पड़ती है। प्रत्येक मनुष्य अपनी २ रुचि के अनुसार धर्म के साधनों को स्वीकार कर उनका आराधन करता है। फिर भी विशिष्ट पुरुषों ने उनमें हिताहित और तथ्या-तथ्य का विचार करके जनता के कल्याणार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावानुसार मार्ग प्रदर्शन कराया, इस कारण जनता उन्हें अवतार के रूप में मानती व पूजती है। विशिष्ट पुरुष परिस्थिति का विचार करके किसी एक तत्व को मुख्यता देकर उसका विशेष रूप से प्रतिपादन करते हैं और उसके प्रति पक्ष को गौण कर देते हैं। परन्तु परम्परा में उनके अनुयायी परिस्थिति एवं वातावरण बदल जाने पर भी उसी परिपाटी का अवलम्बन लेकर एकान्त रूप से उस तत्व का प्रतिपादन करते रहे हैं और दूसरों का विरोध करने लग जाते हैं, इसलिए वह तत्व जनता का हित करने के बदले अहित का कारण बन जाता है। जैन दर्शन में भी यही नियम लागु होने से इसमें भी अनेक सम्प्र. दायवाद चल पड़े हैं, जो एक दूसरे से भिन्न दिखाई पड़ते है। परन्तु तेरह-पन्थ सम्प्रदाय की मान्यता और सिद्धान्त निराले ही ढंग के हैं। वे किसी भी जैन अजैन के सिद्धान्त से मेल नहीं खाते हैं। प्रत्येक सम्प्रदाय को अपने २ तत्वों का प्रचार करने की स्वतन्त्रता है किन्तु दूसरों पर आक्रमण न करते हुवे अपना प्रचार कर सकते हैं। तब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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