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प्राक्कथन
मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बहिर्मुख और ऐन्द्रियक है । वह अपने दैनिक जीवन में अपनी साधारण आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए दृश्य जगत्के आपाततः प्रतीयमान स्वरूपसे ही सन्तुष्ट रहता है । जीवनमें कठिन परिस्थितियोंके आनेपर ही उसके मनमें समस्याओंका उदय होता है और वह जगत्के आपाततः प्रतीयमान रूपसे, जिसमें कि उसे कई प्रकारकी उलझनें प्रतीत होती हैं, सन्तुष्ट न रहकर उसके वास्तविक स्वरूपके जाननेके लिए और उसके द्वारा अपनी उलझनोंके समाधान के लिए प्रवृत्त होता है । इसी तथ्यका प्राचीन ग्रन्थोंमें
" पराचि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद् धीरः आवृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्
प्रत्यगात्मन्यवैक्षद्
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॥”
इस प्रकारके शब्दों में प्रायः वर्णन किया गया है ।
वास्तव में दार्शनिक दृष्टिका यहीं सूत्रपात होता है । दार्शनिक दृष्टि और तात्त्विक दृष्टि दोनोंको समानार्थक समझना चाहिए ।
व्यक्तियोंके समान जातियोंके जीवन में भी दार्शनिक दृष्टि सांस्कृतिक विकासकी एक विशेष अवस्था में ही उद्भूत होती है । भारतीय संस्कृतिकी परम्पराको अति प्राचीनताका बड़ा भारी प्रमाण इसी बातमें है कि उसमें दार्शनिक दृष्टिकी परम्परा अति प्राचीनकाल से ही दिखलाई देती है । वास्तवमें उसका प्रारम्भ कब हुआ, इसका काल निर्धारण करना अत्यन्त कठिन है ।
- कठोप० २।१।१
वेदों का विशेषतः ऋग्वेदका काल अति प्राचीन है, इसमें सन्देह नहीं । उसके नासदीय सदृश सूक्तों और मन्त्रोंमें उत्कृष्ट दार्शनिक विचारधारा पाई जाती है । ऐसे युगके साथ, जब कि प्रकृतिके कार्य निर्वाहक तत्तद्- देवताओंकी स्तुति आदिके रूपमें अत्यन्त जटिल वैदिक कर्मकाण्ड ही आर्य जातिका परम ध्येय हो रहा था, उपर्युक्त उत्कृष्ट दार्शनिक विचारधाराकी संगति बैठाना कुछ कठिन ही दिखलाई देता है । ऐसा हो सकता है कि उस दार्शनिक विचारधाराका आदि स्रोत वैदिकधारासे पृथक् या उससे पहिलेका ही हो ।
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