Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 14
________________ प्रस्तुत तृतीय संस्करण 'जैनदर्शन' का द्वितीय संस्करण अप्रैल १९६६ में प्रकाशित हुआ था । उसके प्रकाशकीय वक्तव्य के अन्तमें हमने आशा व्यक्त की थी कि 'इस द्वितीय संस्करणको भी सहृदय पाठक उसी तरह अपनायेंगे, जिस तरह वे प्रथम संस्करणको अपना चुके हैं ।' हमें प्रसन्नता है कि हमारी वह आशा पूर्ण ही नहीं हुई, बल्कि उत्साहपूर्ण बल भी मिला है । फलतः आज हम तृतीय संस्करणके निकालने में भी सक्षम हो सके हैं । 'जैनदर्शन' के पाठक - मनीषियोंने ग्रन्थकी महत्ताको प्रकट करते हुए उसके वर्तमान २० X ३० - १६ पेजी साइज - आकार को परिवर्तित करने और डिमाई साइज करने का परामर्श दिया । उनका यह परामर्श उपयुक्त और उचित लगा | अतः हमने ग्रन्थका आकार बदल दिया है । आज ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रायः इसी साइज में प्रकाशित हो रहे हैं । आज कागजकी दुर्लभता और अनर्घ्यता इतनी बढ़ गयी है कि किसी ग्रन्थके प्रकाशनका साहस नहीं होता । छपाईका दाम भी दुगुनेसे ज्यादा हो गया है । ऐसी स्थिति में, ग्रन्थकी अप्राप्यता और पाठकोंकी माँगको देखते हुए इसका प्रकाशन करना पड़ा है । अतएव हमें ग्रन्थका मूल्य भी विवश होकर बढ़ाना पड़ा है । यद्यपि यह मूल्य कागज, छपाई, बाइडिंग आदिके बढ़े हुए मूल्यसे कम ही है । हमें आशा है हमारी विवशताको पाठक क्षमा करेंगे और ग्रन्थको पूर्ववत् अपनायेंगे । प्रबन्ध समिति, संरक्षक सदस्यों और स्वस्तिक मुद्रणालय के समवेत प्रयत्नोंसे इसका प्रकाशन कार्य निर्बाध सम्पन्न हो सका है। अतः इन सबका आभार व्यक्त करता हूँ । दशलक्षण पर्व, द्वितीय भाद्रपद शुक्ला ५, वी. नि. सं. २५००, २० सितम्बर, १९७४, Jain Educationa International (डॉ०) दरबारीलाल कोंठिया मंत्री, श्री गणेशप्रसाद वर्णी दि० जैन संस्थान For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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