Book Title: Jain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 8
________________ कर्म-सिद्धान्त १. नैतिक विचारणा में कर्म-सिद्धान्त का स्थान सामान्य मनुष्य को नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि कर्मों की शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार शुभाशुभ फल प्राप्त होने की धारणा में उसका विश्वास बना रहे। कोई भी आचारदर्शन इस सिद्धान्त की स्थापना किये बिना जनसाधारण को नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाये रखने में सफल नहीं होता। ___ कर्म-सिद्धान्त के अनुसार नैतिकता के क्षेत्र में आने वाले वर्तमानकालिक समस्त मानसिक, वाचिक एवं कायिक कर्म भूतकालीन कर्मों से प्रभावित होते हैं और भविष्य के कर्मों पर अपना प्रभाव डालने की क्षमता से युक्त होते हैं। संक्षेप में, वैज्ञानिक जगत् में तथ्यों एवं घटनाओं की व्याख्या के लिए जो स्थान कार्य-कारण सिद्धान्त का है, आचारदर्शन के क्षेत्र में वही स्थान 'कर्म-सिद्धान्त' का है। प्रोफेसर हरियन्ना के अनुसार, "कर्मसिद्धान्त का आशय यही है कि नैतिक जगत् में भी भौतिक जगत् की भाँति, पर्याप्त कारण के बिना कुछ घटित नहीं हो सकता। यह समस्त दुःख का आदि स्रोत हमारे व्यक्तित्व में ही खोजकर ईश्वर और प्रतिवेशी के प्रति कटुता का निवारण करता है। अतीतकालीन जीवन ही वर्तमान व्यक्तित्व का विधायक है। जिस प्रकार कोई भी वर्तमान घटना किसी परवर्ती घटना का कारण बनती है उसी प्रकार हमारा वर्तमान आचरण हमारे परवर्ती आचरण एवं चरित्र का कारण बनता है। पाश्चात्य विचारक कर्म-सिद्धान्त [1]

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