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[हिन्दी जैन साहित्य का
विद्वजगत् को उनका ज्ञान उपरोक्त टीकाओं द्वारा सुगम है। कविवर रायमल्लजी और वृन्दावनजी के 'छंदशास्त्र' हिन्दी पद्यरचना के लिये अनूठी रचनायें हैं-उनमें कई अनूठे छंदों का उल्लेख है। हिन्दी जैन साहित्य में सुभाषित ग्रंथ भी अनेक हैं । कविवर भूधरदास का 'जिनशतक', बुधजनजी की 'सतसई', कविवर छत्रपति की 'मनमोदनपंचशती' आदि ग्रंथ पढ़ने से ही ताल्लुक रखते हैं।
हिन्दी जैन साहित्य की एक और विशेषता उसके ऐतिहासिक और गद्य ग्रंथों में सन्निहित है। जैन विद्वानों ने अपने ग्रंथों के अन्त में जो प्रशस्तियाँ लिखी हैं वे और जिनमूर्तियों के आसनों पर अंकित शासनलेख इतिहास विवरण से परिप्लावित मिलते हैं। भारत के मध्यकालीन इतिहास के लिये वे अमूल्य साधन हैं। 'मूतानेणसी की ख्यात' जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ भी जैनों द्वारा लिखे गये हैं। 'विक्रमचरित्र', 'भोजप्रबन्ध', 'कुमारपालचरित्र'
आदि ऐसे ग्रंथ हैं जिनमें बहुत कुछ ऐतिहासिक वृत्त संकलित हैं । कविवर बनारसीदासजी का 'आत्मचरित्र भी' तत्कालीन ऐतिहासिक वार्ता से ओतप्रोत है। जैनियों ने ऐतिहासिक खोज में पाश्चात्य विद्वानों को भी उल्लेखनीय सहायता पहुँचाई थी। कर्नल टाड सा० को राजस्थान लिखने में जैन यति ज्ञानचंद्रजी से सहायता मिली थी। उधर हिन्दी गद्य शैली के आदि प्रणेता भी संभवतः जैनी ही हैं, गद्य विषय का निरूपण हम आगे के पृष्ठों में करेंगे। इस प्रकार इतिहास की दृष्टि से भी हिन्दी का जैन साहित्य महत्त्वशाली है।
जैनियों के हिन्दी साहित्य पर यह आक्षेप किया जाता है कि