________________
संक्षिप्त इतिहास]
बनाये हुए अपभ्रंश प्राकृत भाषा के व्याकरण से की जा सकती है
और तब ही इस विषय पर नवीन प्रकाश पड़ने की सम्भावना है, जिसके आधार से कोई ठीक निर्णय किया जा सके । __ किन्तु भारत के दुर्दिन वहाँ ही समान नहीं हुए। शकों के पश्चात् यहाँ हूण और अरब के मुसलमानों के भी आक्रमण हुए। उनमें से अधिकांश इस देश में बस भी गये और उस समय भी देश में अनेक परिवर्तन हुए। परिणामतः कवि चण्ड की बताई हुई अपभ्रंश प्राकृत भाषा का स्वरूप भी परिवर्तित होता चला और नववीं दशवीं शताब्दि में उसने जैन साहित्य में सुरक्षित अपभ्रंश भाषा का रूप धारण किया, यदि यह कहा जाय तो अनुचित नहीं है; क्योंकि भाषा का परिवर्तन एकदम नहीं होता। ऐसे परिवर्तन समयानुसार क्रमवर्ती और बाह्य प्रभावों के ऋणी होते हैं। अपभ्रंश प्राकृत भाषा पर आभीर लोगों की बोली का सब से ज्यादा प्रभाव पड़ा बताया जाता है । इस अपभ्रंश प्राकृत भाषा में कुछ ऐसी विशेषतायें भी बताई जाती हैं जो उससे पूर्व की प्राकृत भाषाओं में नहीं पाई जाती और वह विदेशी प्रभाव से मुक्त भी नहीं है। प्रो० हीरालालजी वे विशेषतायें मुख्यतः तीन बताते हैं
१. कारक और क्रिया विभक्तियों की बहुत कुछ मन्दता। २. बहुत से ऐसे देशी शब्दों और मुहावरों का प्रयोग जिनके
कि समरूप संस्कृत में नहीं पाये जाते । ३. तुकबद्ध छंद का प्रादुर्भाव ।
१. भविष्यदत्तकपा (G.O. S. Baroda ) की भूमिका देखिये।