Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 257
________________ [ हिन्दी जैन साहित्य का २३८ सवा लाक उग्गवद्द भानु तह ज्ञानु गणिज्जइ । टंका सहस पचास साहि भंडारु भरिज्जइ ॥ टंका सहस पचास रोज जे करहि मसक्कति । - टंका सहस पचीस सुतनुसुत परचु दिन प्रति ॥ सिरिमाल वंस संघाधिपति, बहुत बड़े सुणियत श्रवण | कुलतारण भारहमल सम, कौनु बढरो चढिहँ कवण ॥ १२७ ॥ वत्थू भणइ फणिंदु, विसमगण जगण विवज्जिय । चकल पंच पर्यंत किरण दुइ पय पय सज्जिय ॥ गारह तेरह विरह रहवि चउवीहक वजय पय । भूपति भारमल असम जस रस वसुधामय ॥ १२८ ॥ कोडिय पंचसुकातिलियौ बहु देसणिरग्गल ; भरिसर डिंडवान अवनि टकसार समग्गल । भू भूधर दर उदर पनित अगनित धर्म न संगति ; देवतनय सिरिमाल सुजसु भारहमल्ल भूपति ॥ १२९ ॥ रोडउ छंद फणिंदु वुत्तु चउठीह सुमत् । पढम होइ छह मनत्तभारिच गणइ गुरु अंतै ॥ गारह तेरह विरह कित्ति चक्कवह सरूपं । देवदत नंदन दयाल भारमल भूपं ॥ १३० ॥ इंद्रराज इंद्रावतार जसुनंदनु दिहं । अजयराज राजाधिराज सब कज्ज गरिहं ॥ स्वामी दास णिवासु लछि बहु साहि समाणं । सोयं भारहमल हेम हय कुंजर दानं ॥ १३१ ॥ उल्लाल छंदु अडवीह कल, तिथि तेरह रद्द पत्र जुअल । चकल रिंद चउकल णगण, चउकल चउकल विप्पकल ॥ १३२ ॥ दिल्लीश हुमाऊँ साहि सुत, साहि अक्कबर वर हुकुम । धण माण दाण जस वड वषत, णहि लोकुर भारहमल्ल सम ॥ १३३ ॥ भारमल भूपती देवतरु अवतरथौ भवनिमंडल महाछ वि विराजै ;

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