Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 258
________________ संक्षिप्त इतिहास] २६ सेस के सोस कीरति जटाजूट धरि दिविजसेयर शिषादान राजै । पाइए भागु भगवंत निज भाल तठ लिषि विशेष्यौ जहाँ जितुकु जानै ; कोऊ नयनसुख उछाह कोऊ पात कोऊ कुसुमरसडार कोऊ पक्क फल स्वाद साजै ॥ १३॥ । मूलण छंदु ॥ सुजस रस वसाउलो, छंदु रासाउलो। पढम चरण मत्तया, गारहापरूया ॥ विदिय पय वविज्जए, मतदहा दिज्जइ । चरण चउ एम बहु, मत चउररिसियमह ॥ पुण उल्ललइ सरिस भणि, चाल मउ विमत्तह सयल । सुज० ॥ कुलतारण भारहमल्ल तुव पुहमि सुजसु दिन दान बल ॥ १३५ ॥ पिसुण गण निकंदनो, देव कुल नंदणो, उदित तरणि भालयं । असम समर भुववलो, रोस दावानलो, सरट दससरंकवं ॥ धंम रह दन, जगति, पतित पावन विरद, करुणामय पूरित भूरि धनु-भारहमल सिरिमाल हद ॥ १३६ ॥ रंगिकाइयं महु भणिज्जइ, चउवण मत्त गणिजै; पंद्रह दुइदह विरइ ठविज्जइ, भारहमल्ल भणिज्जइ । रंगि० ॥ १७ ॥ नटभट गणक महाजन, हय गय कंचन दाता ।। भारहमल्ल महीपति की गति, सुरतरु थाप्यौ विधाता ॥ १३८ ॥ . इसके आगे जो छंद दिये गये हैं, उनकी भाषा अपभ्रंश के अनुरूप है। अतः उन्हें अपभ्रंश पिंगल से सम्बन्धित. समझना चाहिये । उदाहरणतः १३९ वां छंद देखियेविनादो कण सयारय सत्तासु दंडय वुत्त पयंम्हिकए । अहि छंद जहाँ गणविद्धि पयंम्हि पयामिय दोसण भूसणए ॥ कित्ती भूमंडल पिंड अखंडिय मंडिय डंवर अवुधरावहिलं । सोए सो भारहमल्ल छपाल कृण सिरिमाल इला प्रतिपाल जिय।

Loading...

Page Navigation
1 ... 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301