Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 269
________________ २५० [हिन्दी जैन साहित्य का किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय की वासना ने इन्हें खूब छकाया। पाठक पदिये यह ठकरसी जी की काव्यवाणी में "परसण रस कीचक प्रयो, गहि भीम शिलातल चूरयौ । परसण रस रावण नामह, वारयो लंकेसुर रामह । परसण रस शंकर राख्यौ, तिय भागे नट ज्यों नाच्यो।" शङ्कर से बली जब स्पर्शेन्द्रिय की बहाव में बह गये, तब बेचारे साधारण मानव की क्या बिसात है ? कवि इसी लिये मुमुक्षु को सावधान करते हैं___ "परसण रस जे नर पूता, ते नर सुर धर्ण विगूता !" अतः इन्द्रियवासना में फँसकर जीवन नष्ट न करना उपादेय है। कवि भगवतीदास जी अग्रवाल (पृ० १०१.१०४) के विषय में श्री पं० परमानन्द जी शास्त्री ने 'अनेकान्त' (वर्ष ७ किरण ५-६ पृष्ठ ५४-५५) में विशेष प्रकाश डाला है। पं० जी को आपके रचे हुये (१) सीतासतु, (२) अनेकार्थनाममाला, व (३) मृगांकलेखाचरित्र मिले हैं। उनसे पं० जी को विदित हुआ है कि वह जिला अम्बाला के बुढ़िया नामक ग्राम के निवासी थे। 'सीतासतु' की प्रशस्ति में उन्होंने यही लिखा है 'मगर धूलिए बसै भगोती , जनमभूमि है आसि भगोती। भग्रवाल कुल बंसलगोती , पंरितपद जन निरख भगोती।' पं० भगवतीदास जी देहली के भट्टारफ गुणचन्द्र के प्रशिष्य तथा भ० सकलचंद्र के शिष्य भ० महेन्द्रसेन के शिष्य थे। वह बूढ़िया से आकर पहले योगिनीपुर (देहली ) में रहे थे। मालूम होता है कि वह देहली से जाकर कुछ दिन हिसार में भी रहे थे। हिसार से वह सहिजादपुर, संकिसा और कपिस्थल में

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