Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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[ हिन्दी- जैन साहित्य का
२३६
- इय योमावती मत्ता छंद चमत्ता गण अव्वायं । गणराउ विवज्जिय सज्जिय सव्वं चारिउ गणठ गणउक्किट्ठायं ॥ भणि भारमल णरिंदु पुरंदर सुंदर, सिंधुर पग्ग धरा । जा मुखु दिट्ठतह लछि गरिह इड्डहरिद्वी लछिवरा ॥ १०६ ॥ अवनि उवण, पादप रे, वदन रवणा पंकजरे ।
गवण गजपति रे, नैन सुरंगा सारंग रे ॥ तनुरूह चंगा मोरा रे, बचन अभंगा कोकिल रे । तरुणि पियारा बालक रे, गिरि जठर विदारा कुलिसं रे ॥ अरिकुल संघारा रघुपति रे, हम नैनहु दिट्ठा चंद्रा रे । दान गरिट्ठा विक्रमु रे, मुख चवै सुमिट्ठा अमृत रे ॥१०७॥ नन पादप पंकज गजपति सारंग मोरा कोकिल वाल कुलं । नन कुलिशं रघुपति चंदा, नरपति अमृत किमुत सिरीमाल कुलं ॥ वकसै गजराजि गरीवणिवाज, अवाज सुराज विराजतु है । संघपत्तिसिरोमणि भारहमल्लु, बिरदु भुवपति गाजतु है ॥ १०८ ॥ तिभंगी छंद भणइ फर्णिदं, चउकल कंदं अट्ठ गणं । गुरु अंति गरि दह अट्ठद्वं, तुरिए छहर्द्ध णहि जगणं ॥ जिम जुवति चमक्कं तिणि जमक्कं, चरण अवकं वरउ वमं । भणि भारहमल्लं अरिउर सल्लं, णेहणवल्लं सुनहु कहणिया, कहहु बहणिया, मोर किस रंगा, प्राण अधारा, हियरा रखुहु सब जगत पियारा । अंषिया देवहु गुरु जन महिया; देइ सैन बुलावहु महलु न कहिया ।
भूप समं ॥ १०९ ॥
भतारा ।
परिजन वरजहु मुख च वैन हिया ;
हरिगीय छंद फणिंद भामिय वीय, वहि छक्कलो ।
गण पढमतीय तुरिय पंचम पंच मत्त सुयद्दलो ॥
दह छक वारस विरहठद्द पथ पर्यंह अंतहि गुरुकरे । सिर भारमल्ल कृपाल कुल सिरीमाल वंस समुद्धरे ॥ १२० ॥ कलिकाल कलपवुम विराजित दिविजि तर किमु अवतरथौ ।

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