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[हिन्दी जैन साहित्य का
अशोक के पश्चात् भारत के राजशासन में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए । भारतीय सम्प्रदायवाद की संकीर्णता में फँसकर एक दूसरे से वैर करने लगे। मगधराज ने चाहा कि वह सार्वभौम सम्राट् वने, पैठण के शातकर्णी नरेश ने भी भारत चक्रवर्ती बनने की ठानी और उधर कलिंग चक्रवर्ती जैन सम्राट ऐल खारवेल ने सारे भारत की ही प्रायः दिग्विजय कर डाली। सम्राट् खारवेल की दिग्विजय का परिणाम यह अवश्य हुआ कि भारत की फूट से लाभ उठाकर जो शक-शाही बादशाह भारत में घुस आये थे और उनमें से दमत्रय ( Demetrius ) राजा मथुरा तक शासनाधिकारी हो गया था, वह मथुरा छोड़कर भाग गया। किन्तु यह सफलता क्षणिक थी। इसके कुछ समय बाद ही शक लोग फिर भारत में आ जमे और वह यहाँ के होकर रहे। इस विशेषता ने उन्हें भारतीय संस्कृति से प्रभावित किया । उनमें से अधिकांश ब्राह्मण, जैन और बौद्ध धर्मों में दीक्षित हुए । भारतीयों और शकों में परस्पर सामाजिक आदान प्रदान भी हुआ। अतः यह स्वाभाविक था कि भारत की तत्कालीन राष्ट्र भाषा अपभ्रंश प्राकृत पर उन विदेशियों की भाषा का प्रभाव पड़ता। वे उसका उचारण अपने ढङ्ग पर करते थे यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है । तत्कालीन प्राकृत भाषाओं के साहित्य के उपलब्ध होने और उसका अध्ययन किये जाने पर, उसकी तुलना कवि चण्ड के
१. जर्नल ऑर दी बिहार ऐड मोदीसा रिसर्च सोसाइटी, मा० ११ . २७७-२८०।
२. भाण्डारकर कमोमोरेशन वॉल्यूम ( कलकत्ता ) पृ. २८१-१८७॥