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संक्षिप्त इतिहास] की जिज्ञासा की पूर्ति करने के लिए इन चरित्र-ग्रन्थों में ही पर्याप्त तात्त्विक सामग्री मौजूद थी। अतः, उस समय तात्त्विक ग्रन्थों की उतनी आवश्यकता ही नहीं थी। नवयुगकाल में तात्त्विक ग्रन्थों की माँग साधारण जनता में बढ़ी और तब जैनों ने संस्कृत और प्राकृत भाषा के सिद्धान्त ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद उपस्थित करके हिन्दी में जैन तत्त्वज्ञान का एक विशाल साहित्य तैयार कर दिया। हिन्दी के लिए यह गौरव की बात है कि उसे पढ़ कर भारत के प्राचीन तत्त्वज्ञान, ज्योतिष, गणित, न्याय आदि शास्त्रों की अच्छी जानकारी प्राप्त हो सकती है । श्वेताम्बर जैन समाज ने अपने 'आगम ग्रन्थों' को इस शताब्दि में हिंदी रूप दिया है। इसके पहले श्वेताम्बर विद्वान स्वतंत्र रचनायें रचा करते थे। इस काल के रचे हुए पूजा और स्तोत्र ग्रंथ प्रायः नगण्य हैं। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि उस समय जनसाधारण प्राचीन प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में रची हुई पूजाओं और स्तोत्रों को कण्ठान करते थे । जैनियों में आज भी प्राचीन स्तोत्र आदि की मान्यता अधिक है। किन्तु आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य अपना निराला ही महत्त्व रखता है। वह महत्त्व उसमें हिन्दी की उत्पत्ति की जड़ विद्यमान होने एवं हिन्दी गद्य के प्राचीन रूप को उपस्थित करने में निहित है। जैन भंडारों की खोज करने पर इस काल की अन्य रचनाओं के उपलब्ध होने की संभावना है।