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संवित इतिहास] नहीं, कि इस काल की सब ही रचनाओं का विस्तार से उल्लेख किया जा सके। ___ पन्द्रहवीं शताब्दि की रचनाओं में आदि काल की रचनाओं से अधिक सामञ्जस्य है। प्रेमीजी ने इस शताब्दि की रची हुई तीन कृतियों, अर्थात् 'गौतमरासा' 'ज्ञानपंचमी चउपई' और 'धर्मदत्तचरित्र'का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त अन्य किसी प्रन्थ का पता कहीं से नहीं चलता है। 'गौतमरासा' को संवत् १४१२ वि० में उदयवंत अथवा विजयभद्र नामक श्वेताम्बर साधु ने रचा था। यह ग्रन्थ छप भी चुका है। गौतमस्वामी के रूप वर्णन का एक छंद देखिये
"सात हाथ सुप्रमाण देह रूपिहिं रंभावरु ॥ नयणवयण करचरणि जिण वि पङ्कज जलिपाडिय । तेजिहि तारा चंद सूर आकासि भयारिय ॥ रूविहि मयणु अनंग करवि मेलिहउ निहारिय ।
धीरिम मेरु गंभीरि सिंधु चंगमि चय चाडिय ॥" । अर्थात्-गौतमस्वामी के शरीर की ऊँचाई सात हाथ की थी और उनका रूप रंभा के रूप से भी श्रेष्ठ था। अपने नेत्रों, वचनों, हाथों और चरणों की शोभासे पराजित करके उन्होंने पंकजों को जल में पैठा दिया था। अपने तेज से उन्होंने ताराओं और चन्द्र-सूर्य को आकाश में भ्रमाया था। अपने रूप से उन्होंने मदन को अनंग (विना अङ्ग का) बना के निर्धाटित कर दिया-निकाल दिया। वह मेरु के समान धीर और सिंधु के समान गंभीर थे। अच्छे चरित्र के थे। इस प्रकार यह रचना अनेक अलङ्कारों से विभूषित है और इसमें म. महावीर के समय की सामाजिक