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[ हिन्दी जैन साहित्य का
"निसि दीनी झलहलहि जेम ऊगिउ तारायणु ; पावल पारु न पामियए वेगि महई सुखासणु । भागेवाणिहि संचरए संघपति साहु देसलु ; बुद्धिवंतु बहु पुंनिवंतु परिकमिहि सुनिश्चलु ॥ "
इन पद्यों की रचना चारणीय रासों से सरल और सुबोध है। इस प्रकार आदि - काल के कतिपय काव्यों की रचना का यह संक्षिप्त परिचय है | आइये पाठक, हिन्दी के प्राचीन गद्य पर भी एक दृष्टि डाल लें ।
हिन्दी के गद्य साहित्य पर दृष्टिपात करने पर हमें ज्ञात होता है कि पूर्व युग में गद्य को साहित्यिकरूप मिला ही नहीं । खुसरो और कबीर के पहले उस समय की खड़ी बोली में गद्य-साहित्य लिखा गया हो, यह पता नहीं चला। अलबत्ता कवि गङ्ग आदि ने कुछ गद्य उस भाषा का लिखा था, जिसे विद्वज्जन साहित्यिक नहीं Had | साहित्य का आधार नये युग तक पद्य ही रहा' । किन्तु हिन्दी जैन साहित्य के भंडार को टटोलने पर हमें आदिकाल से ही हिन्दी गद्य के दर्शन होते हैं । हिन्दी गद्य का प्रयोग धर्मसाहित्य के निर्माण के लिए तेरहवीं शताब्दि में किया जाने लगा था । इस काल की गद्य-रचनाओं के उदाहरण देखिये -
१ 'जगत्सुंदरी प्रयोगमाला' नामक वैद्यक ग्रन्थ का उल्लेख पहले किया जा चुका है । यह तेरहवीं शताब्दि की रचना अनुमान की गयी है । उसमें कहीं कहीं पर गद्यभाषा का भी प्रयोग किया गया है । एक नमूना देखिये
१. हि० सा० सु० इतिहास, पृ० ११७ |