________________
संक्षिप्त इतिहास ]
कविवर बनारसीदासजी ने तो नवरस - गंगा निम्नलिखित एक छन्द में बहाकर अपने रचनाकौशल का परिचय दिया है :
शोभा में श्रृंगार बसे वीर पुरुषारथ में,
हिये में कोमल करुना रस बखानिये ।
आनन्द में हास्य रुंड मुंड में विराजे रुद्र,
बीभत्स तहाँ जहाँ ग्लानि मन भनिये ॥
चिन्ता में भयानक अथाहता में अद्भुत,
माया की अरुचिता में शान्त रस मानिये ।
येई नवरस भव रूप येई भाव रूप,
इनह को विलक्षण सु दृष्टि जग जानिये ॥
१७
निस्सन्देह जब हृदय में सुबोध प्रकट होता है तब ही नवरस की विलासकलिका • प्रस्फुटित होती है । यही तो कहते हैं कविवरजी :
गुन विचार श्रृंगार, वीर उद्दिम उदार रुष । करुना सम रसरीति, हास हिरदे उछाह सुख ॥ अष्ट करम दकमलन, रुद्र बरते तिहि थानक | तन विलेच वीभत्स, दुंद दुख दशा भयानक ॥ अद्भुत अनंतबल चितैवत, शांत सहज वैराग ध्रुव । नवरस विलास परगास तब, जब सुबोध घट प्रगट हुव ॥
यह है जैन साहित्य की विशेषता । विवेक उसका पथ-प्रदर्शन करता है और उसके भावों को अनुप्राणित करनेवाली विश्वप्रेमपूरक अहिंसा है। २