Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth Author(s): Shobhachad Bharilla Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar View full book textPage 7
________________ ग्रन्थ का कलापक्ष अदृश्यसत्ता सत्य है. तो कला प्रेरक व स्फुर्ती है ! भारत का शिल्पविधान व्यापक स्थायी और प्राणवान् है. ललित कला से लेकर सम्पादन-कला तक सर्वत्र ही मनुष्य, कला की प्रतिष्ठा चाहता है ! तो सम्पादन और मुद्रण दोनों ही कला है-प्रत्यक्षकला. नहीं कहा जा सकता कि इसका कहां तक सम्यक् निर्वाह हो पाया है. वैसे भारत की लगभग सभी ललित कलाओं के प्रति हमारी श्रद्धा है. कला की प्रतिष्ठा और संवर्धनभावुकों के हृदय का आनन्द है. प्रस्तुत स्मृति-ग्रंथ के कलापक्ष के सम्बन्ध में कुछ कहा जाय इसकी अपेक्षा यह अधिक उत्तम है कि पारखी आंखें स्वयं उसे परखें. मात्र दिशा संकेत कर देना ही पर्याप्त है. भारत की कलाकृति की प्रतिष्ठा की दृष्टि से प्रस्तुत ग्रंथ में स्थान-स्थान पर चित्र-अंकित किये हैं. पाठक देखेंगे कि प्रत्येक पृष्ठ पर नीचे की ओर एक पट्टी ब्लॉक-चित्र है. इनमें से अधिकांश पट्टिकायें जैसलमेर के शास्त्र भण्डार, चित्तौड़ के शास्त्र-भण्डार एवं मुनि कान्तिसागरजी के व्यक्तिगत शास्त्र संग्रह में से ली गई हैं ! इन पट्टिकाओं में हवीं शती से लेकर १६वीं शती तक की पट्टिकायें हैं ! मुद्रणकला के जन्म से पूर्व जैन मुनियों का लेखनकला और चित्रकला से अत्यन्त अनुराग रहा है. ये पट्टिकायें इसका प्रमाण हैं. जैन-मुनियों और यतियों के लिए कोई विषय अनछुआ नहीं रहा. उन्होंने सभी विषयों पर लिखा है. उस लेखन को उन्होंने कला का अविभाज्य अंग भी माना है. अपने लेखन को कलापूर्ण करना ललितकला के प्रति सम्मान का सूचक है. • प्रत्येक पट्टिका के सम्बन्ध में अलम से लिखना और परिचय देना व्यापक विषय है. प्रत्येक निबन्ध के प्रारम्भ में तत्तत्-विषयक प्रतीक चित्र देने का संकल्प प्रारम्भ से था किन्तु वह अत्यन्त श्रम और कालापेक्षित था साथ ही व्ययप्रधान भी. अत: कुछ प्रारम्भिक निबन्धों के पश्चात् ही उस सकला का परित्याग करना पड़ा. निबंधों के अन्त में भी कुछ चित्र हैं. इन में भी भारतीय और विशेषतः जैन-पुरातत्त्व से सम्बन्धित हैं. इस श्रेणी के चित्रों में ७ वीं शताब्दी तक के भी चित्र हैं ! जिन चित्रों का पुरातत्त्व से सम्बन्ध न हो वैसे चित्र स्वल्प हैं. उक्त चित्रों में अधिकांश प्रो० श्री परमानन्दजी चोयल ने रेखांकित किये हैं ! मुनिश्री का तेल चित्र मेरे मित्रवर्य श्री किशनजी वर्मा ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक चित्रित किया है. आवरण श्री सुखदेवजी दुग्गल की कलम का शिल्प है. अपने स्नेहियों की कलाकृतियों का स्वागत है ! उदयपुर स्थित मुनि श्रीकान्तिसागरजी ने उक्त चित्रों को जुटाने में पूर्ण सहयोग दिया है एवं समय-समय पर अपने सुझाव भेजे हैं एतदर्थ मुनि श्री के प्रति कृतज्ञ हूँ. मनुष्य सवर्था अप्रमत्त किसी विशिष्ट अवस्था में भले होता हो पर वह अवस्था सहज नहीं है. श्वासोच्छ्वास जीवन धारण प्रणाली की सूचक हो सकती है परन्तु इसे मैं क्रमश: प्रमाद और अप्रमाद के क्षण मानता हूं. पाठकों से निवेदन है कि वे अप्रमाद के क्षणों में जो उपलब्धि की है उस ओर दृष्टिपात करें. त्रुटियों का होना तो प्रमत व्यक्ति से सहज संभाव्य है. पूज्य स्वामीजी के जीवन से मैंने जो पाया वह यह कि 'जो उत्तरदायित्व ओटा है उसे जी-जान लगाकर जीवन की सांझ तक करते रहो !' यही मेरे संस्मरण की रेखा है इसी पर श्रद्धा है ! -कुमार सत्यदर्शी १४ अप्रेल १९६५ ऋषभ जयन्ती १२ लेडी हाडिंग रोड, नई दिल्ली. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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