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ज्ञान विज्ञान भाग -१
पाठ-८
तत्त्व मंगल देव को नमस्कार
तत्त्वं च नन्द आनन्द मउ, चेयननंद सहाउ ।
परम तत्त्व पदविंद पउ, नमियो सिद्ध सुभाउ॥ अर्थ- आत्म तत्त्व नन्द, आनंद मयी, चिदानन्द स्वभावी है, यही परम तत्त्व निर्विकल्प शुद्धात्मा है,
ऐसे सिद्ध स्वभाव को मैं नमस्कार करता हूँ। विशेष जानने योग्य
देव को नमस्कार संबंधी यह गाथा आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज द्वारा रचित श्री ममलपाहुड़ जी ग्रंथ के देवदिप्ति नामक पहले फूलना की पहली गाथा है। इस गाथा में सच्चे देव को नमस्कार किया गया है। व्यवहार से हमारे सच्चे देव अरिहंत और सिद्ध परमात्मा हैं। निश्चय से हमारा सच्चा देव निज शुद्धात्मा है। आचार्य इस गाथा में कहते हैं कि सच्चा देव नन्द, आनन्द मयी चिदानन्द स्वभाव वाला निर्विकल्प स्वरूप में रहता है। अरिहंत और सिद्ध भगवान इसी प्रकार अपने आनन्द स्वरूप में लीन हैं, हमारे आदर्श हैं इसलिये व्यवहार से सच्चे देव हैं। उन परमात्मा के समान मेरा आत्मा भी स्वभाव से परम शुद्ध तत्त्व, विंद पद स्वरूप है यही मुझे इष्ट आराध्य है इसलिये निश्चय से निज शुद्धात्मा हमारा सच्चा देव है। इसी शुद्धात्म स्वरूप मय सिद्ध स्वभाव का मैं ध्यान करता हूँ। साक्षात् भगवन्तों के स्वरूप का विचार कर अपने सिद्ध स्वभाव की शरण लेना ही सच्चे देव की यथार्थ वन्दना
है।
गुरु को नमस्कार
गुरु उवएसिउ गुपित रुई,गुपित न्यान सहकार।
तारन तरन समर्थ मुनि, गुरु संसार निवार ॥ अर्थ - गुप्त रुचि अर्थात् जो आत्मा अनादिकाल से जानने में नहीं आया, ऐसे आत्म स्वभाव को
जानने का जो उपदेश देते हैं। वे आत्म ज्ञान को प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं। ऐसे निर्ग्रन्थ वीतरागी मुनि सच्चे गुरु हैं जो संसार सागर से स्वयं तिरने में और जगत के जीवों को तारने में
निमित्त हैं। विशेष जानने योग्य
गुरु को नमस्कार संबंधी यह गाथा श्री ममलपाहुड़ जी ग्रन्थ के गुरू दिप्ति नामक तीसरे फूलना की पहली गाथा है। इस गाथा में सच्चे गुरु का स्वरूप बताया गया है। जो निर्ग्रन्थ साधु वस्तु स्वरूप का यथार्थ उपदेश देते हैं, जगत के जीवों को कल्याण का मार्ग बताते हैं, जिनके मन में संसारी कामना और कोई स्वार्थ नहीं हैं, जो निस्पृह आकिंचन्य वीतरागी साधु हैं वे सच्चे गुरु हैं। जो स्वयं संसार से तिरते हैं और दूसरे जीवों को तारने में निमित्त हैं इसलिये तारण तरण कहलाते हैं। निश्चय से निज अंतरात्मा हमारा सच्चा गुरु है। श्री गुरु तारण स्वामी जी ने स्वयं तिरने का और जगत के जीवों को संसार से पार होने का मार्ग प्रशस्त किया इसलिये