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श्री मालारोहण जी
गाथा-४
सम्यकदृष्टि साधक का कर्तव्य संसार दुष्यं जे नर विरक्तं,ते समय सुद्ध जिन उक्त दिस्ट ।
मिथ्यात मय मोह रागादि षंडं, ते सुद्ध दिस्टी तत्वार्थ साधं ॥ अन्वयार्थ-(जे) जो (नर) पुरुषार्थी भव्य जीव (संसार दुष्यं) पंच परावर्तन रूप जन्म - मरण के दु:खों से (विरक्त) विरक्त हैं, छूटना चाहते हैं (ते) वे (जिन उक्त) जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार (समय सुद्ध) शुद्धात्म स्वरूप को (दिस्ट) देखें, अनुभव करें (मिथ्यात) मिथ्यात्व अर्थात् तत्वार्थ के प्रति अश्रद्धान रूप परिणाम (मय) मद, अहं भाव (मोह) ममत्व, मम भाव (रागादि) राग है आदि में जिसके ऐसे राग-द्वेष आदि समस्त विकारी भावों का (पंड) खंडन करें, ज्ञान पूर्वक अंतर शोधन परिमार्जन करें (ते) वे (सुद्ध दिस्टी) सम्यक्दृष्टि (तत्वार्थ साध) तत्वार्थ के श्रद्धानी [साधक हैं।
अर्थ - जो पुरुषार्थी भव्य जीव संसार के दुःखों से छूटना चाहते हैं वे जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार अपने शुद्ध समय अर्थात् शुद्धात्म स्वरूप को देखें, अनुभव करें और मिथ्यात्व, मद, मोह, राग आदि को खंड-खंड करें वे ही शुद्ध दृष्टि तत्त्वार्थ के श्रद्धानी साधक हैं। प्रश्न १- संसार किसे कहते हैं? उत्तर - 'संसृति इति संसार:' जीव एक शरीर को छोड़ता है, दूसरे नये शरीर को ग्रहण करता है
पश्चात् उसे भी छोड़कर पुन: नया शरीर धारण करता है। इस प्रकार मिथ्यात्व कषाय से युक्त होकर जीव चार गति चौरासी लाख योनियों में संसरण अर्थात परिभ्रमण करता है इसे संसार
कहते हैं। प्रश्न २- संसार में दुःख क्या है? उत्तर - संसार में जन्म के, मरण के, रोग के, वृद्धावस्था आदि के अनेक दु:ख हैं। मनुष्य गति में
गर्भावस्था, जन्म, बालपन, जरा आदि के दुःख हैं। तिर्यंच गति में भूख-प्यास, वध-बंधन, ताड़न-मारण, छेदन-भेदन आदि के दु:ख हैं। नरक गति में शीत-उष्ण, भूख-प्यास, असुर कुमारों द्वारा परस्पर उत्पन्न किया हुआ दु:ख तथा अशुभ परिणाम, अशुभ लेश्या विक्रिया आदि के अनेक दु:ख हैं। देवगति में अज्ञान के कारण ईर्ष्या तथा अन्य भी अनेक
दु:ख हैं। इस दुःख भरे संसार में सुख नहीं है। प्रश्न ३- सम्यग्दृष्टि साधक क्या करता है ? उत्तर - सम्यग्दृष्टि साधक निरंतर भेदज्ञान तत्त्वनिर्णय का अभ्यास करता है और स्वभाव के
आश्रय से ज्ञायक रहता हुआ अपने पूर्व संस्कारों को तोड़ता है, मान्यताओं को मिटाता है तथा शुद्धात्म स्वभाव की साधना में संलग्न रहता है।
गाथा-५ सम्यग्दृष्टि साधक की स्वरूप साधना सल्यं त्रियं चित्त निरोध नित्वं, जिन उक्त वानी हिदै चेतयत्वं ।
मिथ्यात देवं गुरु धर्म दूरं, सुद्धं सरूपं तत्वार्थ साधं ॥ अन्वयार्थ - (सल्यं त्रियं) तीन प्रकार की शल्यों को (चित्त) चित्त से (निरोध) रोक कर (जिन