Book Title: Gyanodaya
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 174
________________ श्री ममलपाहुड़ जी फूलना - ५ स्वीकार करो, इससे (सहनु विलय) जो अभी तक पुण्य - पाप कर्मों को सहन किया है, वह विला जायेगा (सहिय न्यान) ज्ञान भाव सहित रहने का (उवएस) भगवान ने उपदेश दिया है (जिन) जो वीतरागता (जिन धरनु) जिनेन्द्र परमात्मा ने धारण की है वैसी (धरनु) धारण करने योग्य वीतरागता को [तुम (धरिउ) धारण करो, इससे (पर्जय भय नंत) अनंत पर्यायी भय (विलंतु) क्षय हो जायेंगे। रहनु विलय जिन रहनु रहिउ, रहि पर्जय विलयतु । दिप्ति दिस्टि सुइ न्यान पउ, विन्यान मुक्ति दसंतु ॥१५॥ भावार्थ :- [हे आत्मन् !] (जिन) वीतराग भाव में (रहिउ) रहो (रहनु) इसमें रहने से (रहनु विलय) विभावों में रहना छूट जायेगा (रहि) इस रहनि अर्थात् इस प्रकार वीतराग भाव में रहने से (पर्जय विलयंत) पर्यायें विला जायेंगी (विन्यान) भेदज्ञान पूर्वक (दिस्टि) द्रव्य दृष्टि के द्वारा (दिप्ति) दिव्य प्रकाशमयी (सु न्यान) स्वयं के ज्ञान स्वभाव को (पउ) प्राप्त करो [और] (मुक्ति दर्सतु) मुक्ति श्री का दर्शन करो अर्थात् मुक्ति श्री के अतीन्द्रिय अमृत रस में निमग्न रहो। रमनु विलय जिन रमनु रमिउ, रमियो उवनु हिययार । सहयार रमनु साहिउ ममलु, अमिय रस रमन हिययार ॥ १६ ॥ भावार्थ :- हे आत्मन् !] (जिन) वीतराग स्वभाव में (रमिउ) रमण करो (रमन) इस रमणता से (रमनु विलय) पर भावों में रमण होना छूट जायेगा (रमियो उवनु) स्वानुभूति में रमण करना (हिययार) हितकारी है (साहिउ ममलु) ममल स्वभाव की साधना पूर्वक (रमनु) लीनता (सहयार) सम्यक्चारित्र है (अमिय रस) अमृत रस में (रमन) लीन रहना ही (हिययार) हितकारी, कल्याणकारी है। दंसु गलिय जिन दर्स धरिउ, दिस्टि गलिय जिन दिस्टि । तारन तरन सहाउ लई, धम्मु इस्टि परमिस्टि ॥ १७ ॥ भावार्थ :- हे आत्मन् ! (जिन) वीतराग स्वभाव के (दर्स) दर्शन को (धरिउ) धारण करने से (दंसु गलिय) पर्याय दृष्टि से उत्पन्न होने वाला कष्ट गल जाता है (जिन दिस्टि) वीतराग भाव की दृष्टि होने पर (दिस्टि गलिय) पर्याय दृष्टि गल जाती है (तारन तरन सहाउ लई) तारण तरण स्वभाव जो अंतर में प्रगट हुआ है (इस्टि परमिस्टि) यही इष्ट परमेष्ठी स्वभाव है (धम्म) इसमें रहना ही धर्म है। लषु गलिय जिन लषु लषिउ, जिनयति कम्म सहाउ । भय विनासु भवुजु मुनहु, अमिय ममल सुभाउ ॥१८॥ भावार्थ :- हे आत्मन् !] (जिन) वीतराग स्वभाव को (लषिउ) लखो (लघु) इसको लखने से (लषु गलिय) पर पर्याय को लखना गल जाता है (भवु जु) जो भव्य [ज्ञानी] (अमिय) अमृत मयी (ममल सुभाउ) ममल स्वभाव का (मुनहु) मनन करते हैं, उनके (भय विनासु) भय विनस जाते हैं, वे (सहाउ) स्वभाव के आश्रय से (कम्म) कर्मों को (जिनयति) जीत लेते हैं। अलषु गलिय जिन अलषु लषिउ, लपंतउ ममल सहाउ । भय षिपनिकु पर्जय विलयं, विषु विलय अमिय रस भाउ ॥ १९॥ भावार्थ :- (जिन) हे अंतरात्मन् ! (अलषु) इन्द्रिय और मन से पकड़ में नहीं आने वाले स्वभाव को (लषिउ) लखो (ममल सहाउ) ममल स्वभाव को (लषंतउ) लखने से (अलषु गलिय) रागादि भाव जो लखने योग्य नहीं हैं वे गल जायेंगे (अमिय रस) अमृत रसमयी स्वभाव की (भाउ) भावना भाओ, जिससे (भय षिपनिकु) भय क्षय हो जायेंगे (पर्जय विलय) पर्याय विला जायेगी (विषु विलय) रागादि

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