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श्री ममलपाहुड़ जी फूलना - ३२
उत्पन्न कमल जिन उत्तु है, उव उवन स उत्तं । परिनामु नंतानंत सुयं सुइ, षिपक स उत्तं ॥ तं कमल कंद जिन उत्तु है, जिन जिनय जिनंद ।
तं विंद रमनु विन्यान चरनु, सइ सहज जिनंद ॥ ३ ॥ भावार्थ :- (जिन उत्त) जिन वचनों को स्वीकार करने से (कमल) ज्ञायक भाव (उत्पन्न) उत्पन्न हुआ (है) है (स) वही (उव) ओंकारमयी शुद्धात्म स्वरूप का (उवन) अनुभव (उत्तं) कहा है (सुयं) स्वयं का (स) यह अनुभव (सुइ) सहज ही (नंतानंत परिनामु) अनंत विभाव परिणामों को (विपक) क्षय करने वाला (उत्त) कहा है (जिन उत्तु है) जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि (जिन) वीतराग (कमल कंद) ज्ञायक स्वभाव (जिनंद) जिनेन्द्र पद (तं) को (जिनय) जीतो (विन्यान) भेदज्ञान पूर्वक (जिनंद) जिनेन्द्र पद की (तं विंद) अनुभूति में (रमनु) रमण करना ही (सुइ सहज) सम्यक्ज्ञानी का सहज (चरनु) आचरण है।
विन्यान न्यान रस रमनु जिनु, सइ परम सनंदे । तं विंद रमनु विन्यान गमनु, सुइ सहज सविंदे ॥ सुइ अर्क सु अर्क सु अर्क पउ, सुइ लषिय सलज्ये ।
सर्वार्थसिद्धि सुइ समय मउ, सुइ परम परिष्ये ॥ ४ ॥ भावार्थ:-(जिनु) हे अंतरात्मन् ! (सुइ परम सनंदे) अपने परम आनंद स्वरूप (विन्यान न्यान रस) ज्ञान विज्ञानमयी स्वभाव के रस में (रमनु) रमण करो (विन्यान) भेदज्ञान पूर्वक (तं विंद रमनु) निर्विकल्प स्वानुभूति में रमण करना ही (सुइ सहज सविंदे) अपनी सहज स्वभाव की अनुभूति में (गमनु) गमन करना है (सुइ अर्क सु अर्क सु अर्क पउ) ज्ञान से प्रकाशमान परिपूर्ण दैदीप्यमान स्वयं का निज पद है (सलष्ये) इसको लखो (सुइ लषिय) अपने में ही लखो (सर्वार्थसिद्धि सुइ समय मउ) सर्वार्थ सिद्धि स्व समयमयी है, अतः (सुइ परम परिष्ये) अपने श्रेष्ठ स्वभाव को परखो अर्थात् अनुभवन करो।
सो अर्थति अर्थ समर्थ पउ, सम अर्थ सु भवने । सम समय संमत्तु जिनुत्तु, जिनय जिन न्यान श्रवने ॥ सहयार अर्थ जिन उत्तु सइ, अवयास अनंते ।
तं नंतानंतु अनंतु, अलष जिन जिनय जिनुत्ते ॥ ५ ॥ भावार्थ :- (सो) यह (अर्थति) रत्नत्रयमयी (अर्थ) प्रयोजनीय (पउ) पद ही (समर्थ) समर्थ पद है (भवने) संसार में (सु) अपना (सम) सम्यक् स्वभाव (अर्थ) प्रयोजनीय है (सम) समभाव पूर्वक (समय) आत्म श्रद्धान करना (संमत्तु) सम्यक्त्व है, ऐसा (जिनुत्तु) जिनेन्द्र भगवान ने कहा है (श्रवने) जिन वचन श्रवण करके (न्यान) ज्ञान स्वभावी (जिन) वीतराग पद को (जिनय) जीतो (जिन उत्तु) श्री जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि (सुइ अवयास अनंते) आकाश के समान अपने अनंत निर्मल स्वभाव में रहना (सहयार अर्थ) सहकार अर्थ अर्थात् सम्यक्चारित्र है (नंतानंतु अनंतु) अनंत - अनंत (अलष जिन) अतीन्द्रिय वीतराग स्वभाव (तं) को (जिनय) जीतो (जिनुत्ते) यही जिनोपदेश है।
अन्मोय अर्थ सुइ ममल पउ, सइ रमन संजोए । तं षिपियौ नंतानंत, जिनय जिन न्यान अन्मोए ॥