Book Title: Gyanodaya
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 200
________________ धर्म का स्वरूप ४. धर्म का स्वरूप चेतन अचेतन द्रव्य का, संयोग यह संसार है । निश्चय सु दृष्टि से निहारो, आत्मा अविकार है । रागादि से निर्लिप्त ध्रुव का, करो सत्श्रद्धान है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ १ ॥ आतम अनातम की परख ही, जगत में सत धर्म है। इस धर्म का आश्रय गहो, तब ही मिले शिव शर्म है | जिनवर प्रभु कहते सदा ही, भेदज्ञान महान है । सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ २ ॥ जितनी शुभाशुभ क्रियायें, सब हेतु हैं भव भ्रमण की। यह देशना है वीतरागी, गुरू तारण तरण की ।। निज में रहो ध्रुव को गहो, धर लो निजातम ध्यान है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ३ ॥ चिन्मयी शुद्ध स्वभाव में, जो भविक जन लवलीन हों। वे अन्तरात्मा शुद्ध दृष्टि, सब दुखों से हीन हो ॥ पल में स्वयं वे प्राप्त करते, ज्ञान मय निर्वाण हैं। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ४ ॥ जिसमें ठहरता न कभी, शुभ अशुभ राग विकार है। वह भेद से भ्रम से परे, पर्याय के भी पार है || जो है वही सो है वही, निज स्वानुभूति प्रमाण है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ५ ॥ सब जगत कहता है, अहिंसा परम धर्म महान है। निश्चय अहिंसा का परंतु, किसी को न ज्ञान है | शुभ क्रियाओं को धर्म माने, यही भ्रम अज्ञान है । सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ६ ॥ जग तो क्रिया के अंधेरे में, कैद करके धर्म को। भूला स्वयं की चेतना, नित बांधता है कर्म को | विपरीत दृष्टि में न होता, कभी निज कल्याण है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ७ ॥

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