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श्री मालारोहण जी
गाथा - ८
आत्म गुणों को प्रगट करने की प्रेरणा
संमिक्त सुद्धं हृदयं ममस्तं', तस्य गुनमाला गुथतस्य वीजं ।
देवाधिदेवं गुरू ग्रंथ मुक्तं, धर्म अहिंसा षिम उत्तमाध्यं ॥
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अन्वयार्थ (संमिक्त सुद्ध) शुद्ध सम्यक्त्व (हृदयं ममस्तं) मेरे हृदय में स्थित है (तस्य) उसकी (गुनमाला) गुणमाला को (गुथतस्य) गूंथने का प्रगट करने का (बीज) पुरुषार्थ करो (यह सम्यक्त्व स्वरूप आत्मा] (देवाधिदेवं) अरिहंत भगवान (गुरू ग्रंथ मुक्तं ) परिग्रह से रहित सच्चे गुरू (धर्म अहिंसा) अहिंसा मयी धर्म ( विम उत्तमाध्यं) उत्तम क्षमादि गुणों से परिपूर्ण है।
अर्थ- शुद्ध सम्यक्त्व मेरे हृदय में स्थित है अर्थात् मैं स्वयं शुद्धात्मा परमात्मा हैं, इसकी गुणमाला को गूंथने का पुरुषार्थ करो। यह शुद्ध सम्यक्त्व स्वरूप आत्मा देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा के समान गुणों वाला, परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ गुरु के समान गुणों का धारी, अहिंसामयी वीतराग धर्म तथा उत्तम क्षमा आदि अनंत गुणों से परिपूर्ण है ।
प्रश्न १- शुद्ध सम्यक्त्व मेरे हृदय में स्थित है' इसका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर
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प्रश्न २ - इस गाथा में आचार्य श्री जिन तारण स्वामी जी ने क्या प्रेरणा दी है ?
उत्तर
आत्मा स्वभाव से शुद्ध है, सम्यक्त्व स्वरूप है । आत्मा शुद्ध भाव में निवास कर रहा है, शुद्ध भाव में रहने से अनंत गुण प्रगट होते हैं। आचार्य श्री जिन तारण स्वामी जी के अतिरिक्त श्री कुन्दकुन्द आचार्य महाराज श्री नेमिचन्द्राचार्य जी, श्री अमृतचन्द्राचार्य जी ने भी कहा है कि ज्ञान आत्मा का स्वरूप है, वह शुद्ध भाव पूर्वक प्रगट होता है। अंतरंग में शक्ति रूप से विद्यमान है, शुद्ध भाव से पर्याय में व्यक्त हो जाता है।
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आत्मा शुद्ध सम्यक्त्व स्वरूप है और यह आत्मा स्वभाव से परमात्मा है। आत्मा में परमात्म शक्ति निहित है, आत्मा गुरू के समान गुणों वाला अर्थात् रत्नत्रयमयी है अहिंसामयी धर्म और उत्तम क्षमादि धर्म भी आत्मा के लक्षण हैं, इस प्रकार यह शुद्ध सम्यक्त्व स्वरूप आत्मा अनन्त गुणों का धारी है। आचार्य श्री जिन तारण स्वामी जी ने इस गाथा में पुरुषार्थ पूर्वक आत्मगुणों को प्रगट करने की प्रेरणा दी है ।
उत्तर
प्रश्न ३ - 'शुद्ध सम्यक्त्व की गुणमाला गूंथने का पुरुषार्थ करो' इसका क्या अभिप्राय है ? आत्मा सत् पुरुषार्थ से अपनी अनुभूति पूर्वक धर्म को प्रगट करता है। वीतरागी साधु पद धारण कर अहिंसा और क्षमा आदि धर्म के लक्षणों में आचरण करता है। अपने स्वरूप में लीन होकर चार घातिया कर्मों को क्षय कर देवाधिदेव अरिहंत होता है और सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार अंतरंग में छिपी हुई आत्म शक्तियों को प्रगट करना ही गुणमाला गूंथने का अभिप्राय है ।
१- प्राचीन प्रतियों मे समस्तं पाठान्तर भी मिलता है, जिसका अर्थ सबके हृदय में स्थित है, ऐसा जानना चाहिये ।