Book Title: Gyandhara Tap Tattva Vichar Guru Granth Mahima
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

View full book text
Previous | Next

Page 90
________________ SAGISISISMISISISISISMISIS ज्ञानधाRANSISISISISISISIOISISISISISIST जिज्ञासा है और वह यह कि सम्पूर्ण वर्ष में वह कौन सा दिन है जब व्यक्ति कम से कम धार्मिक क्रिया कलाप करके अधिक से अधिक पुण्य की प्राप्ति कर सकता है ? तीर्थकर ने उनकी जिज्ञासा शांति का समुचित उपाय बतलाया और कहा कि मार्गशीर्ष के ग्यारहवें दिवस पर किया जाने वाला मौन व्रत इस पूरे प्रकरण का एक मात्र उपाय है। उन्होंने इस पर्व की महत्ता बतलाते हुए यह भी स्पष्ट किया कि किस प्रकार यह दिवस एक सौ पचास कल्याणकों से जुड़ा है। उन्होंने यह जानकारी भी दी कि इसकी पूर्णाहुति ग्यारह वर्षों में होती है। मौन एकादशी के तथ्यों से परिचित और संतुष्ट कृष्ण वासुदेव ने तीर्थंकर नेमि से जानना चाहा कि क्या पहले भी किसी साधक ने इस पर्व को अपना कर अधिक से अधिक पुणाय प्राप्त किया है? तीर्थंकर ने इसका स्वीकारात्मक उत्तर दिया और सुब्रत सेठ की सम्पूर्ण कथा का उल्लेख किया। उन्होंने बतलाया कि दक्षिण भारत के घाटकी खण्ड के विजयपुर में राजा धर्मी अपनी पत्नी चन्द्रावती के साथ राज्य करता था। उसी शहर में सूर नामक एक ब्यापारी भी रहता था, जो अपने व्यापार के साथसाथ अपने ज्ञान के लिए भी प्रसिद्ध थाय और यही कारण था कि वहाँ का राजा तक उसका सम्मान करता था। एक रात्रि स्वप्न में उसने यह देखा कि ह आज जिस वैभवपूर्ण और धन-धान्य से पूर्ण अवस्था में रह रहा है, वह इसलिये कि उसने पिछले जन्म में बहुत से धार्मिक और पुण्य के कार्य किये थे ओर वर्तमान की सुखद स्थिति उसी पुण्य की फलादेश था। वह तत्काल यह सोचने लगा कि उसे आज जो सुखसम्पत्ति प्राप्त है, वह तो पिछले जन्म के अच्छे कार्यों के कारणपर अपने अगले जन्म में इसी तरह के जीवन को प्राप्त करने के लिए तो इसी जिन्दगी में ही कुछ न कुछ करना होगा। प्रातःकाल में उठते ही वह सुबह सबेरे अपने गुरु के पास पहुँचा। गुरु ने उससे इतने सबेरे आने का कारण पूछा। सेठ ने विनम्रता से निवेदन किया कि चूंकि अपनी दैनिक व्यस्तताओं और कारोबार के कारण वह नियमित रूप से धार्मिक कृत्यों को नहीं कर सकता है, अतः वे उसे यह बतादें कि कम से कम समय में पूजा-अर्जना करके वह अधिक से अधिक पुण्य कैसे प्राप्त कर सकता है। उनके गुरु अत्यंत ही ज्ञानी और विचारक थे। उन्होंने सेठ सुब्रत से कहा कि वे माघशीर्ष सूद ग्यारह के दिन पूरे विधि विधान से ग्यारह वर्ष और ग्यारह महीनों तक नियम से मौन ब्रत का पालन करें। इसके बाद वे इसे अपने दैनिक जीवन का अंग बना लें। वचन को सुनने के बाद सुब्रत सेठ ने अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ नियमित रुप से एकादशी व्रत करना १७२) SAGISISISISISISISISISABISNEH५ तत्त्व दिया ISISISISISISION प्रारंभ कर दिया तथा पूरे ग्यारह वर्ष ग्यारह महीने तक इसे वे सभी तन्मय रहें। अनुष्ठान की समाप्ति के बाद प्रन्द्रह दिनों पश्चात सेठ सुव्रत ने समा उन्हें देवलोक प्राप्त हुआ, जहाँ उनका पुनर्जन्म स्वर्ग देवता के रुप में हुआ ग्यारहवें स्वर्गलोक में सुब्रत सेठ ने सभी सुख-सुविधाएँ और ऐश्वर्व यहां उन्होंने अपना पूरा काल व्यतीत किया, जिसके पश्चात जम्बद्वीप के में सौरीपुर में वे सेठ समद्रदत्त के पुत्र के रुप में जन्म लिये। पिता ने उन नाम दिया। सेठ सुब्रत अपना जीवन बड़े ही आराम से ब्यतीत करने लगे उनके पिता को यह अहसास हुआ कि उनकी अवस्था अब ज्यादा हो चल वे अपने कार्यों का बोझ आगे नहीं ढो सकते। इस कारण उन्होंने अपने व सारा दायित्व अपने पुत्र को सौंप दिया और स्वयं सांसारिक कार्यों से मुन सुव्रत ने अपने पिता से सारा उत्तदायित्व ले लिया। इस बीच वे धर्म औ| से भी पूरी तरह जुड़े रहें। जब उन्हें यह अहसास होगया कि वर्तमान में उन जीवन प्राप्त हुआ है, वह पिछले जन्म में किये गए एकादशी व्रतों के | तत्काल उनहोंने अपने ग्यारह पत्नियों के साथ मौन एकादशी व्रत करने लिया। उनकी सभी पत्नियों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ तथा यथासमय वे को प्राप्त हुई। कुछ काल बाद राजा सुब्रत को भी केवलज्ञान मिला, नि में देवलोक के देवताओं ने धूमधाम से इस उत्सव को मनाया। इसके बा समय पर अपने अनुयायिया के बीच धर्म और आध्यात्म पर शिक्षा व उपदे कालान्तर में उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई। कथा में सेठ सुब्रत के जीवन के घटनाओं का जिक्र भी आया है, जिसमें उनके सम्पूर्ण परिवार के मौन ही उनके घर में चोरों द्वारा चोरी करने का वर्णन है। चोर अपने उद्देश्य । जाते, पर सम्पूर्ण घटना पर जिन शासन देवी अपनी दृष्टि रख रखी थी सेठ के घर से चोरी किये जाने के प्रयत्न को इश्वरीय शक्ति से रोक दिय घटना की सूचना वहाँ के राजा को मिली तो वे इतने प्रभावित हुए किस दर्शन करने इनके घर पर आयें, जहाँ उन्होंने देखा कि शासन देवी के | दोनो चोर वहाँ बंधे खड़े थे । राजा ने चोरों को दण्ड देने की सोची पर ने राजा से प्रार्थना की कि वे चोरों को अभयदान दें। राजा ने इनकी बात चोरों को मुक्त कर दिया गया। इसी प्रकार एक और घटना का जिक्र कि जिसमें शहर में अचानक एक भयंकर आग लग गई और देखते-देखते इस ०१७3)

Loading...

Page Navigation
1 ... 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136