Book Title: Gyandhara Tap Tattva Vichar Guru Granth Mahima
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

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Page 92
________________ 33333333333333333333333333333333333 आचार्य विजयानंद सूरि की रचनाओं में तप-पद का विवेचन • महेन्द्र कुमार मस्त, पंचकूला (चंडीगढ़) ( महेन्द्र कुमारजी जैनदर्शन के अभ्यासु, पत्रकार "विजयानन्द" के संपादक हैं । पंजाब - चंदीगढ़ की जैन संस्था में कार्यरत हैं ।) भारतीय संस्कृति की श्रमण परम्परा के महान आचार्य श्री विजयानंद सूरि उन्नीसवीं शताब्दी के 'भारतीय सुधार' के प्रणेता गुरुओं व नेताओं में गिने जाते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती व स्वामी रामकृष्ण परमहंस के समकालीन, आचार्य विजयानंद, जिन्हें उत्तर भारत में उनके प्रसिद्ध नाम 'आत्माराम' के नाम से जाना जाता है, अपने युग के महान मनीषी, लेखक एवं प्रवक्ता तथा तत्त्ववेता धर्मगुरु थे । मानव को उसकी महानता दर्शाकर मानवीय गौरव बढ़ाकर, उसे आत्मदर्शन की महान साधना में लगाकर परम हित एवं कल्याण ही उनके जीवन का मात्र उद्देश्य रहा । आचार्य विजयानंद सूरि ने अपने ग्रंथ "जैन तत्त्वादर्श'" में तप के बाह्य व अभ्यंतर, बारह प्रकार का विवेचन इस संदर्भ के आधार पर किया है - अणसण मूयोयरिया, वित्तिसंखेवणं रसच्चओ । कायकिलोसो संलीणया, य बज्झो तवो होइ ॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्च तहेब सज्झाओ । झाणं उषग्गोविय, अब्भिंतरओ तो होई || (प्रव. सा., गा. ५६०-५६१, दशवै. नि., गा. ४७-४८) अर्थात् (१) व्रत करना, (२) थोड़ा खाना (३) नाना प्रकार के अभिग्रह करने (४) रस- दूध, दही, घृत, तेल, मीठा, पकवान का त्याग करना (५) कायाक्लेश- वीरासन, दण्डासन आदि के द्वारा अनेक तरह का कायाक्लेश करना (६) पाँचों इन्द्रियों को अपने विषयों से रोकना । यह उपरोक्त छः प्रकार का बाह्य तप है, और (१) प्रथम जो कुछ अयोग्य काम किया और पीछे से गुरु के आगे जैसा किया था, वैसे ही प्रगट में कहना, आगे को फिर वो पाप न करना, और प्रथम जो किया है, उसकी निवृत्ति के वास्ते गुरु से यथायोग्य दण्ड लेना, इसका नाम प्रायश्चित है । (२) अपने से गुणाधिक की विनय करनी, (३) वैयावृत्त्य भक्ति करनी (i) आप पढ़ना 999 aaaaaaaaaaa तप तत्त्व विचार beegseggaesaree और दूसरों को पढ़ाना (ii) उसमें संशय उत्पन्न होवे तो गुरु को पूछना (iii) अपने सीखे हुए को बार याद करना (iv) जो पढ़ा है उसके तात्पर्य को एकाग्र चित्त होकर चिंतन करना इस का नाम अनुपप्रेक्षा है ((vi) धर्मकथा करनी ये पाँच प्रकार का स्वाध्याय तप है । (५) (i) आर्त्त ध्यान (ii) रौद्र ध्यान (iii) धर्मध्यान (iv) शुक्ल ध्यान इन चारों में आर्त्त ध्यान और रौद्र ध्यान, ये दोनों त्यागने और धर्म ध्यान व शुक्ल ध्यान, ये दोनों अंगीकार करने, ये तप है, (६) सभी उपाधियाँ त्याग देना व्युत्सर्ग तप है। यह उपरोक्त छः प्रकार का अभ्यंतर तप है। ये सब मिलाकर के बारह प्रकार का तप है। उनके द्वारा रचित श्री नवपद के अन्तर्गत तपपद पूजा में उपार्जित कर्मों को जड़मूल से ही उखाड़ देने या नष्ट करने वाले 'तप' को नमन करते हुए कहते हैं: कर्म द्रुम उन्मूलने, वर कुंजर अति रंग तप समूह जयवंत ही, नमो नमो मन चंग तप से आत्मा निर्मल होती है, मन को आनंद की अनुभूति होती है, कषाय और दुर्ध्यान मिटते हैं तथा अनादि काल से जो कर्म दल ने घेरा डाला हुआ है, उनका उच्छेदन हो जाता है। ऐसी स्थिति में योग, वियोग, संयोग दूर होते हैं। स्व-सत्ता यानि आत्मसत्ता की अनुभूति होती है। तब इसी तप से आत्मा की आठ सिद्धियों और नव निधियों की लहरियों में मोक्ष के द्वार खुलते हैं। तप की महमा दर्शाते हुए तप-पद पूजा में ही उनका एक स्तवन इस प्रकार है: श्री तप मुझ मन भायो आनंदकर इच्छा रहित कषाय निवारी, दुर्ध्यान सब ही मिटायी, बाह्य अभ्यंतर भेद सुंहकर, निर्हेतुक चित्त ठायो । सर्व कर्म का मूल उखारी, शिवरमणी चित लायो, अनादि संतति कर्म उछेदी, महानंद पद पयो । योग सुयोग आहार निवारी, अक्रियता पद आयो, अंतर मुहूरत सर्व संबरी, निज सत्ता प्रकटायो ॥ कर्म निकाचित छिनक में जारे, क्षमा सहित सुखदायो, तिस भव मुक्ति जाने जिनंद जी, आदरयो तप निरमायो । १७७

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