Book Title: Gyandhara Tap Tattva Vichar Guru Granth Mahima
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

View full book text
Previous | Next

Page 94
________________ SISISISIONSISISMEIGNSIBISINEानधाRAISISISIONSISISISISISISISIS चौद सहस मुनिवर में अधिको, धन धन्नो जिनवानी कनक केतु तप शुद्ध पद सेवा, आतम जिनपद दानी उपरोक्त गाथाओं में श्री विजयानंद सूरि ने कहा है कि पवित्र और निरापद तप से आत्मा स्वयं अपना सुधार व विकास करती और अपने परम पद (मोक्ष) को प्राप्त करती है। उदाहरण के लिए वे कहते हैं कि हर रोज छः पुरुष और एक महिला की हत्या करने वाला हत्यारा अर्जुन माली प्रभु के चरणों मे भिक्षु बन गया । प्रभु को बंदन करके विनय पूर्वक कहा कि - "हे प्रभु, आप की आज्ञा हो तो में बेले (छट) की तपस्या से जीवन पर्यंत छठ करके पारणा करूँ और तपस्या से आत्मा को भावित कर लूँ ।' अर्जुन माली ने छः महीने के परिषहों, उपसर्गों को झेला। उपसर्ग परिषह रंग लाया और छः महीने में ही वे सिद्ध बुद्ध हो गए। ___ अतिमुक्त कुमार छोटी आयु में ही साधु हुआ था। गुण संवत्सर तप की आराधना में तपोमार्ग पर निरंतर बढ़ता गया और अमर पद प्राप्त किया। जैन इतिहास में अभय कुमार जैसी बुद्धि, शालिभद्र जैसी समृद्धि और धन्ना जैसा तपस्वी अन्य कोई नहीं माना गया। एक ही समय में धन्ना ने सात पत्नियों को त्यागा और प्रभु महावीर के पास साधु बन गए। लगातार मासिक, द्विमासिक व त्रैमासिक तप करने लगे और इसी लोक में देव आयुष्य बांधा। तपस्या के द्वारा जो शुद्ध, बुद्ध, निर्मल और कर्मरहित बनाने वाले तपस्वियों के लिए आचार्य विजयानंद सूरि जी का यह दोहा कितना सार्थक है - उपशम रस युत तप भलो, काम निकंदन हार, कर्म तपाचे चीकणां, जय जय तप सुखकार ॥ ENSIBIDISIBIOMETRICISMISSIOICICICISISISISISISISISISISIONSIONSIBISIS इच्छानिरोधस्तप - डॉ. शेखरचंद्र जैन अहमदाबादस्थित डॉ. शेखरचंद्र जैन जैन धर्म के अभ्यास तीर्थकरवाणी के तंत्री है। देश-विदेश में जैन धर्म पर प्रचवन देते हैं। ___उपरोक्त सूत्र का अर्थ है "इच्छाओं को रोकना ही तप है। यह सूत्र “उमास्वामी विरचित तत्वार्थसूत्र से प्रस्तुत है। इसके उपरांत आचार्यों ने अपनी विविध व्याख्याओं में आचार्यों ने कहा है - "जो इस लोक और परलोक संबंधी सुखों की अपेक्षा न करके शत्रुमित्र, कॉच-कंचन, महल-मसान, सुख-दुःख, निंदा-प्रशंसा आदि में राग-द्वेष भाव किए बिना किए समभाव रखते हैं और निर्वाछित हो । अनशनादि बारह प्रकार का तपश्चरण करते हैं, उनके उत्तम तप होता है।" जैनदर्शन में आत्मा सर्वोपरि है और उसके मुख्य दस लक्षण बताये हैं। दिगंबर सम्प्रदाय में यही दश लक्षण धर्म पर्युषण में मनये जाते हैं। इन्हीं आत्मा से लक्षणों की चर्चा होती है। 'तप' ज्वाँ लक्षण है। लक्षणों का प्रारंभ क्षमा भाव से होती है और अंतिम लक्ष्य ब्रह्मचर्य अर्थात मोक्ष या ब्रह्म में स्थापित होना होता है। मैंने उल्लेख किया कि तप ७वाँ लक्षण है। अर्थात् पहले चार लक्षण क्षमा, मार्दव (नम्रता), आर्जव (निष्कपटता) एवं शौच (पथभाव) से चार कषाय क्रोध, मान, माया एवं लोभ को दूर करने के प्रथम चरण हैं। जब तक आत्मा में ये चार कषाय रहेंगे व्यक्ति अरिहंत की यात्रा में आगे नहीं बढ़ सकेगी यही सहि अर्थात आत्म के दुश्मन चार कषाय है, जिन्हों ने इन्हें जीता वे ही अरिहंत हुए। जब कषाय भाव का अभाव होता है तब वाणी में सत्य और आचरण में संयम का अवतरण होता है। 'संयम और 'तप' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मनुष्य का मन सर्वाधिक चंचल और कर्मेन्द्रियों के वश में होता है। इन्द्रियों की बाचालता मन को संतप्त, चंचल एवं योग्ययोग्य के विचार से हीन कर देती है। शास्त्रों में कहा है कि तप में आरुढ़ होने से पूर्व "पंचेन्द्रिय मन वश करो।" जिसका राग-द्वेष छूट गया हो, जिसमें सत्य बोलने की निर्मलता, नम्रता आ गई हो, जिसे पुद्गल शरीर और शाश्वत आत्मा का भेद समझ में आने लगा हो, जिसमें अच्छे या बुरे के बीच समता के भाव पनपने लगे हो - वही तप की ओर अग्रसर हो सकता है। इसमें मन-वचन-कर्म के सात कृत-कारिल और अनुमोदना का भाव बढ़ना चाहिए। दश लक्षण पूजन में कहा है - "तप चाहे सुरराय, कर्म शिखर 09000

Loading...

Page Navigation
1 ... 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136