Book Title: Gyandhara Tap Tattva Vichar Guru Granth Mahima
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

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Page 93
________________ Beeipippoce ज्ञानधारा padegreeeeeeeeee आमसही आदि सब लब्धि, होवे जास पसायो, अष्ट महासिद्धि नवनिधि प्रकटे, सो तप जिन मत गयो । शिवसुख फल सुर नर वर संपद, पुष्प समान सुभायो, सो त सुरतरु सम नित बंदु, मन बंछित पल दायो । सर्व मंगल में पहलो मंगल, जिनवर तंत्र सुं गायो, सो त पद त्रिहुँ काल में नमिये, आतमाराम सहाय ॥ 'सो तप सुरतरु सम नित बंदु' अर्थात् तप की महमा कल्पवृक्ष के समान है, तप आराधना से मनोवांछित फल मिलते हैं। 'अहिंसा, संयम और तप' यह तीनों पद जैन धर्म का आधार है। आचार्य विजयानंद सूरि ( आत्माराम जी) ने भी 'सो तप पद त्रिहुंकाल में नमिये' कहकर तप की श्रेष्ठता को नमन किया है। गणि श्रीभद्रंकर विजय जी और पं. श्री लालचंद भगवानदास गांधी के संपादन में प्रकाशित 'प्रबोध टीकानुसारी' पंचप्रतिक्रमण सूत्र' में 'तपाचार के बारह भेद' को अतिचारों का विस्तार इस प्रकार दिया गया है : बाह्य तप: अनशन शक्ति के होते हुए पर्वतिथि को उपवास आदि न किया। अनोदरी वृत्तिसंक्षेप रस कायाक्लेश संलीनता - दो चार ग्रास कम न खाये । द्रव्य खाने की वस्तुओं का संक्षेप न किया विगय त्यान न किया लोच आदि कस्ट न किया अंगोपांग का संकोच न किया, पच्चक्खाण तोड़ा, भोजन करते समय एकासणा आदि में चौकी, पटड़ा अखला आदि हिलता ठीक न किया, पच्चक्खान पारना भुलाया, बेठते नवकार न पड़ा, उठते पच्चक्खाण न किया, उपवास आदि तप में कच्चा पानी पिया, वमन हुआ इत्यादि । अभ्यंतर तपः प्रायश्चित - शुद्ध अंतःकरण पूर्वक गुरु महाराज से आलोचना न ली, गुरु की दी हुई आलोचना संपूर्ण न की । विनय - देव, गुरु, संघ, साधर्मी का विनय न किया । वैयावृत्य - बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी आदि की वैयावच्च १७८ (वैयावच्च (सेवा) न की । स्वाध्याय वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा रुप पाँच प्रकार का स्वाध्याय न किया । -धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याया नहीं। आर्त्त ध्यान रौद्र ध्यान ध्याया । - व्युत्सर्ग दुःख क्षय, कर्म क्षय निमित दस बीस लोगस्स का काउस्सग न किया । इन अतिचारों की आलोचना करनी आवश्यक है तैत्तरीय उपनिषद में कहा हैकि मन और इन्द्रियों को एक काम मेंलगा देना ही तप है। 7 जो व्यक्ति के जन्म से ही प्रारम्भ हो जाती है। जन्म के उपरान्त चलना, उठना बैठना, खाना, दौड़ना ये सब सीखना तप है। "अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा है, इस अवधराणा के आधार पर, परमात्म पद की प्राप्ति हेतु जीवात्मा को अपना पुरुषार्थ स्वयं करना पड़ता है। किसी दूसरे के, या ईश्वर के अथवा देव के भरोसे नहीं । तप की परिपूर्ण परिभाषा देते हुए श्री विजयानंद सूरि तप पद पूजा के एक दोहे में कहते हैं : ध्यान इच्छा रोधन संवरी परणति समता जोग तप है सोहिज आतमा, वरते निजगुण भोग अर्थात तप में इच्छाओं का अवरोध है, इच्छाओं को संयमित किया जाना होता है, भाव संवर और समता में रहता होता है। तब आत्मा अपने निज गुणों यानि आत्मा के गुणों में रमण करती है। इनकी ही रचना श्री बीस स्थानक पूजा में तप पद का स्तवन इस प्रकार है। युं सुधरे रे सुझानी अनध तप कर्म निकाचित छिनक में जारे, निर्दम्भ तप मन आनी अर्जुन माली दृढ़ परिहारी, तप सुं घरे शुभ ध्यानी लाख अग्यारह अस्सी हजारा, पंच सयां गिन झानी, इतने मास उमंग तप कीनो, नंदन जिन पद ठानी संवत्सर गुण रत्न जपीनो, अतिमुक्त सुख खानी १७९

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